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गुरुवार, 29 अगस्त 2019

कुछ अधूरा -सा....



रुकी हुई है कलम 
टिकी हुई कागज पर
कि कोई ऐसी बात कह दूँ
कोई सत्य ऐसा लिख दूँ
कि आसमान का पट सरक 
सहसा ही सतरंगी धूप निकल आये...
कि स्याह अँधेरी रात 
झटपट सितारों से जगमगा जाये...

उससे पहले लेकिन
कोई सत्य
कोई किरण 
दृश्य हो ले
जो कहीं किसी  सुनहरे या कि स्याह रैपर में 
अटकी पड़ी है....

रविवार, 24 मार्च 2013

क्या ईश्वर का उद्देश्य भिन्न था .....






ईश्वर ने रचे रात्रि दिवस 
संग अनादि दृश्य प्रपंच था !
ब्रह्माण्ड आच्छादित चन्द्र सूर्य 
तारक समूह नभ आलोकित था !!
   
बाग़ बगीचे , झरने कलकल  
पहाड़ नदियाँ  थार मरुस्थल !
वसुधा के आँचल पर काढ़े  
वनस्पतियों का विस्तार सघन था !!

बसंत नव पल्लव शरद शिशिर  
पतझड़ पीला पात मर्मर  था ! 
ग्रीष्म  आतप  दग्ध था भीषण  
रिमझिम पावस जलतरंग था !!

मधुर  मदालापी मीन मधुप 
खग- मृग  कलरव किलोल था !
चातक  चकोर सुक खंजन 
नील सरोवर उत्पल व्याकुल था !!

मुग्ध दृष्टि  सृष्टि पर रचता 
ह्रदय शिरा मस्तिष्क  संचित था! 
प्रथम स्त्री रची शतरूपा
प्रथम पुरुष स्वायंभुव मनु था !!


प्रेम न उपजे पण तो यह था  
किन्तु  यह न्यायोचित न था ! 
पवन वेग से अग्नि शिखा  का 
वन में दावानल घटना था !! 

ईश्वर ने रची  रचना  भिन्न थी 
उस पर प्रेषित निर्देश भिन्न था! 
कहत नटत रीझत खीझत सा 
क्या ईश्वर  का उद्देश्य भिन्न था !!





चित्र गूगल से साभार ....

रविवार, 29 जनवरी 2012

वसंत का स्वप्न








कोयल कुहुक मधुर कानों में
पवन छेड़े आँचल लहराए
कहीं लबों पर दहके पलाश
कही मन आलापिनी ना हो जाए !

सूरज महुए -सा महका है
धरा पीले आँचल शरमाये
नीले बादल ओस झर रही
कहीं मन हरी दूब ना हो जाए!

कहीं कुसुमित कानन नयनों में
मन कहीं तितली बन जाए !
पल्लवित वृक्ष सा मौन आमंत्रण
कहीं मन वल्लरी ना हो जाए !

कही ताल सज रही कुमुदनी
कही मन भ्रमर बन जाए
कहीं मन है सुरभित वृन्दावन
कही मन गोपी ना हो जाए!

कहीं हिलोरे लेता समन्दर
बिखरे गेसू सा काँधे पर
भेद कर विस्तृत शिलाएं
मन सरिता बन ना बह जाए!

नैन ना खोले रैन सुनहरी
धवल ओट पलके झपकाए
यह वसंत का स्वप्न कहीं है
वसंत कहीं स्वप्न ना हो जाए!



रविवार, 27 नवंबर 2011

लिख देना फिर कभी कोई प्रेम भरा गीत ....

बहुत दिनों से कोई कविता लिखी नहीं , कई बार यूँ ही खामोश रह जाना अच्छा लगता/रहता है ... जैसे समुद्र के किनारे बैठे लहरों को गिनते रहना चुपचाप , लहरों का तेजी से मचलकर आना और उतनी ही फुर्ती से उछलकर फिर से और दूर पीछे हट जाना देखते रहना चुपचाप ...कभी विचारों का प्रवाह भी समंदर की लहरों के जैसा ही होता है ..बहुत कुछ उमड़ता घुमड़ता रहता है और फिर उतनी ही तेजी से गायब ...पानी में या हवा में तैरते बुलबुले से, जैसे ही पकड़ने की कोशिश करो , गायब ...बहुत कुछ सोचना , विचारना, लिखने बैठो तो कलम चलने से इंकार कर देती है .. कब होता है ऐसा ...जब हम बहुत कुछ लिखना चाह्ते हैं , मगर लिखते नहीं ...क्यों??
पता नहीं ...या सब पता है ...

इस उलझन से झूलते- निकलते नया कुछ लिखा नहीं गया तो सोचा एक पुरानी अतुकांत कविता को तुक में लगाने की ही कोशिश कर ली जाये और इस ब्लॉग पर अपनी सभी कविताओं को सहेजने का क्रम भी बना रहे ......
कैसा है यह प्रयास ??

लिख देना फिर कोई प्रेम भरा गीत
अभी जरा अपना दामन सुलझा लो .
मचानों पर चढ़ा रखे हैं ख्वाब तुमने
अब जरा जमीन पर कदम तो टिका लो .
अंसुअन फुहार से सीला है आँचल
तन -मन जरा इसमें और भीगा लो .

लहूलुहान अँगुलियों में दर्द होगा ज्यादा
बिछाता है कौन काँटें नजर को हटा लो .
खींचे संग आते हैं जो दामन में कांटे
करीने से इनको झटक कर हटा लो .

दर्द की लहर रिस रहा जो लहू है
झीना ही सही इन पर परदा लगा लो .
चेहरे पर झलकें ना दर्दे निशानी
पहले जरा खुल कर मुस्कुरा लो.

और अब पहले लिखी गयी अतुकांत कविता ज्ञानवाणी से


लिख ही दूँगी फिर कोई प्रेम गीत
अभी जरा दामन सुलझा लूं ....

ख्वाब मचान चढ़े थे
कदम मगर जमीन पर ही तो थे
आसमान की झिरियों से झांकती थी
टिप - टिप बूँदें
भीगा मेरा तन मन
भीगा मेरा आँचल
पलट कर देखा एक बार
कुछ कांटे भी
लिपटे पड़े थे दामन से
खींचते चले आते थे
इससे पहले कि
दामन होता तार - तार
रुक कर
झुक कर
एक -एक
चुन कर
निकालती रही कांटे
जो लिपटे पड़े थे दामन से ..

लहुलुहान हुई अंगुलियाँ
दर्द तब ज्यादा ना था

देखा जब करीब से
कोई बेहद अपना था...
दर्द की एक तेज लहर उठी
और उठ कर छा गयी
झिरी और गहरी हुई
टिप - टिप रिस रहा लहू
दर्द बस वहीँ था ...
दिल पर अभी तक है
उसी कांटे का निशाँ
इससे पहले कि
चेहरे पर झलक आये
दर्द के निशाँ
फिर से मैं मुस्कुरा ही दूंगी

फिर से लिख ही दूंगी प्रेम गीत
अभी जरा दामन सुलझा लूँ ...


गुरुवार, 11 अगस्त 2011

तू बतला दे मेरे चंदा ....




लाता है सन्देश पिया का ,
उस तक भी पहुंचाता होगा
तू बतला दे मेरे चंदा ,
पी तुझसे तो बतियाता होगा ...

करवट बदलूँ जब रातों में
वो भी नींद गंवाता होगा
जी भर कर जब देखूं तुझको
वो भी नैन मिलाता होगा ...

मद्धम तेरी चांदनी हुई आज
प्रिय छत पर आता ही होगा
अवगुंठन जब खोले सजनी
तू बादल में छिप जाता होगा ...

शीतल चांदनी अंग जलाये
दाह से वो जल जाता होगा
याद उसे जब वो लम्हे आये
लाज से वो शरमाता होगा ...


पलकें मेरी भीगी -सी हैं
वो भी नीर बहाता होगा
फूलों- सी शबनम की चादर
ओढ़ सुबह सो जाता होगा ...


मीठे गीतों की स्वर लहरी
बंसी धुन वो बजाता होगा
तेरे जाने की आहट सुन
अब वो भी घर को आता होगा ...
................................

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

जा कर दिया आजाद तुझे ....


जा कर दिया आजाद तुझे मैंने दिल की गहराईओं से

ना माने तो पूछ लेना अपनी ही तन्हाईओं से ...

बादे सबा नहीं लाएगी अब को पैगाम बार
ना करना कोई सवाल आती जाती पुरवाईयों से ...

पीछे छोड़ आये कबकी वो दरोदीवार माजी की
चढ़ने लगे थे रंग जिनपर ज़माने की रुसवाइयों से ...

नजरें चुराए फिरते थे जिन गलियों चौबारों में
अच्छा नहीं था बचते रहना अपनी ही परछाईओं से...

टीसते थे इस कदर जख्म गहरे बेवफ़ाईओं के
भरते नहीं अब किसी बावफा की लुनाईओं से ...



ज्ञानवाणी से प्रकाशित....

शुक्रवार, 27 मई 2011

जीने दो इन्हें .....


कल मोबाइल से कम्पनियों के अवांछित SMS डिलीट करते एक गुड मोर्निंग मैसेज पर नजर पड़ी ...नेहा , हर रोज एक गुड मोर्निंग मैसेज भेजती थी ...उसके उस आखिरी SMS को मिटाया ही नहीं जाता ..जीवन सफ़र में बिछड़ जाने वाले हमारे मोबाइल में नाम और नंबरबन कर सेव रह जाते हैं ...हृष्टपुष्ट जिंदादिल नेहा ,फ्रेंड तो बेटी की थी , मगर मुझसे कहती...आंटी , आपसे मिलने आई हूँ और इधर -उधर की ढेरों बातें करती ...हम उसके मोटापे पर तंज करते तो हंसती ...हम तो गाँव के लोंग है ,खा- पी कर मस्त रहते हैं , आपकी तरह सुकड़े नहीं है , कभी आपको अपने गाँव लेकर चलूंगी ...
जिंदगी से भरपूर इस लड़की की मृत्यु की खबर अखबार में पढ़ी ...किसी की नजर में फ़ूड पोइजनिंग का मामला था , तो कोई इसे जानबूझकर जहर खाना बता रहा था ...उस दिन अखबार में 4 लड़के -लड़कियों की आत्महत्या की खबर थी , भुलाये नहीं भूलता ...भरे-पूरे परिवार में किस तरह लोंग अकेले पड़ जाते हैं कि उनके पास आत्महत्या के सिवा चारा नहीं होता ....मन बहुत उदास है ....जिन आँखों ने अभी जीवन ठीक से देखा ही नहीं ....जिन सांसों ने जीवन ठीक से जिया ही नहीं ....माता -पिता की आँखों की उम्मीद कैसे एक क्षण में तोड़ कर निर्मोही विदा हो जाते है ....जैसे जीने लायक इस जीवन में कुछ रहा ही नहीं ......क्यों .....!!
उस दुखद एहसास से गुजरते लिखी थी जिंदगी की यह कविता ....

जीने दो इन्हें ....





जीने दो इन्हें
मत डराओ
इन्हें जीने देना होगा
भयमुक्त जीवन
मरने से पहले ............

भर ले बाँहों में
खुला आसमान
फुद्फुदाती तितलियाँ
रंगबिरंगे फूल
सूरज की लालिमा
तुलसी की पवित्रता
चन्द्रमा की शीतलता
चिड़ियों का कलरव
नदियों की रुनझुन
हवाओं सी मस्ती
ख्यालों की बस्ती
सुरों की झंकार
शंख की पुकार
सब कुछ ........
समेट लेना होगा हमें
इन आँखों में
इनके ख़त्म होने से पहले ...

जल रही हो चहूँ ओर दिशाएं
निराशाओं का घनघोर अँधेरा
दम घोटू वातावरण में
हम ले भी ना पा रहे हों भरपूर सांसें
फिर भी
हमें गाने ही होंगे जिंदगी के गीत
कि
अनन्य अद्भुत शांति
सिमटी हो हमारी आँखों में
अंतस तक भिगोती स्निग्धता
जो देती रहे इन्हें साहस
जीने का हौसला
तमाम दुश्वारियों के बीच
कि हमारी नस्लें कर सके यकीन
कि जीवन जीने के लिए है
ख़त्म करने के लिए नहीं
ख़त्म होने के लिए नहीं ........

जीयें हम जी भर इस तरह जीवन
मुस्कुराएँ , खिलखिलाएं
गीत भी गुनगुनाएं
ये एहसास दिलाएं
कि कितना ज़रूरी है
किसी के लिए हमारा होना
कितना जरूरी है
इनका वजूद हमारे लिए
कि ये नस्लें कर सके यकीन
कितना कुछ यहाँ जीने के लिए
मरने से पहले .....




चित्र गूगल से साभार !

शनिवार, 6 नवंबर 2010

दर पर उसकी भी आया मगर देर से बहुत ......





तलाश -ए -सुकूँ में भटका किया दर -बदर
दर पर उसके भी आया मगर देर से बहुत .....

जागा किया तमाम शब् जिस के इन्तजार में
नींद से जागा वो भी मगर देर से बहुत .....

शमा तब तक जल कर पिघल चुकी थी
जलने तो आया परवाना मगर देर से बहुत ....

तिश्नगी उन पलकों पर ही जा ठहरी थी
पीने पिलाने को यूँ तो थे मयखाने बहुत ....

जलवा- - महताब के ही क्यों दीवाने हुए
रौशनी बिखेरते आसमान में तारे तो थे बहुत ...

नम आंखों से भी वो मुस्कुराता ही रहा
रुलाने को यूँ तो थे उसके बहाने बहुत ....

जिक्र उसका आया तो जुबां खामोश रह गयी
सुनाने को जिसके थे अफसाने बहुत ......



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शनिवार, 10 अप्रैल 2010

मैं कण-कण में ढाल रही अलि आँसू के मिस प्यार किसी का....

जाने क्यों कहता है कोई,

मैं तम की उलझन में खोई,

धूममयी वीथी-वीथी में,

लुक-छिप कर विद्युत् सी रोई;

मैं कण-कण में ढाल रही अलि आँसू के मिस प्यार किसी का!


रज में शूलों का मृदु चुम्बन,

नभ में मेघों का आमंत्रण,

आज प्रलय का सिन्धु कर रहा

मेरी कम्पन का अभिनन्दन!

लाया झंझा-दूत सुरभिमय साँसों का उपहार किसी का!


पुतली ने आकाश चुराया,

उर विद्युत्-लोक छिपाया,

अंगराग सी है अंगों में

सीमाहीन उसी की छाया!

अपने तन पर भासा है अलि जाने क्यों श्रृंगार किसी का!

- महादेवी वर्मा