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शनिवार, 12 नवंबर 2011

हर घर में उस एक पत्ते को स्थिर कर दे!


कभी कभी यूँ भी होता है ...
निष्ठां, प्रेम, विश्वास
से बने आशियाने
झूलने लगते हैं
अविश्वास , शक
अपमान ,तिरस्कार के भूचालों से ...
चूलें चरमराने लगती हैं
जैसे बने हो ताश के पत्ते के घर
एक पत्ता हिला और सब बिखर गया..
आंसू भरी आँखों से
कितनी शिकायतें बह जाती है
काली अँधेरी- सी रात गले लग कर सिसकती है ...
उस अँधेरे में ही एक लकीर रौशनी की
जैसे कह उठती है ...
बस यह एक रात है अंधरे की ...
इसे गुजर जाने दो ...
सुबह सब कुछ वही धुला- धुला सा!
यही विश्वास बनाये रखता है
उस एक पत्ते को स्थिर ...
और फिर से वही मजबूत बुनियादें
हंसी - मुस्कुराहटों का साम्राज्य !
अँधेरी रातें उजली सुबह में बदल जाती हैं...
विश्वास हो बस कि ये भी गुजर जाएगा !
और वह हथेलियों को जोड़कर
उस अदृश्य से
प्रार्थना करती है ...
हर घर में उस एक पत्ते को स्थिर कर दे...
सबके जीवन के अंधेरों में उजाला भर दे !