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शनिवार, 17 अप्रैल 2010

बाजी -दर -बाजी चल रहा है चाल कोई......






बाजी -दर -बाजी
चल रहा है चाल कोई
गोटियाँ बैठाता
इधर से उधर कोई ...

उन्माद का मारा
भय फैलाता
दवा के भ्रम में
दर्द बांटता कोई ....

दर्प में अपने
इंसान को बनाता मोहरा
कठपुतलिया
नचाता कोई ....

कैसे भूल जाता है
उस नियंता को
कि नचा रहा है
अपनी अँगुलियों पर वही ....

ईश्वर , खुदा , जीसस
नहीं मानते होगे
कैसे भूल सकता है
प्रकृति को कोई ...

सुनामी ने कितने डुबोये
उड़ा ले गए कितने तूफ़ान
धरती हिल कर जज्ब कर गयी
कितने ये ना पूछे कोई ...

कब तक खुश होते रहेंगे
बिसाते बिछाने वाले
जान ले कि प्रकृति भी
चल रही चाल कोई

देर -सवेर उसकी जद में
आने वाले सभी
किसी का वक़्त अभी हुआ
किसी का कभी

उस एक नियंता के आगे
टिक सका कब है कोई ...

छोड़ अपनी चिंताएं उस पर
चुन कर सत्य पथ
चल पड़ निडर प्राणी
जो होई सो होई ...




चिंताएं से प्रेरित
इस कविता को पढ़ते हुए जो विचार आये ...सीधे -सीधे लिख दिया ...

चित्र गूगल से साभार ...