मंगलवार, 27 दिसंबर 2011
प्रेम में सब जायज़ है ....
कितने बहाने
विजयी मुस्कान
असत्य के हिंडोले में
झूलते कई बार
तड से ताड़ लेती हैं
आँखें मन की
मन की बातें !
दन से मुस्कुरा देती है...
इस अमृतमयी मुस्कान को ही तो
पिया जाता है हर रोज
गरल असत्य का ...
बुद्धू बनाया!
बुद्धू कही का!
दो चेहरे
आमने -सामने
मुस्कुराते हैं
एक दूसरे के लिए ही!
हर असत्य से बढ़कर
सत्य यही है ...
गुरुवार, 1 दिसंबर 2011
लिख देने भर से कुछ होता है/नहीं है ....
रविवार, 27 नवंबर 2011
लिख देना फिर कभी कोई प्रेम भरा गीत ....
ख्वाब मचान चढ़े थे
कदम मगर जमीन पर ही तो थे
आसमान की झिरियों से झांकती थी
टिप - टिप बूँदें
भीगा मेरा तन मन
भीगा मेरा आँचल
पलट कर देखा एक बार
कुछ कांटे भी
लिपटे पड़े थे दामन से
खींचते चले आते थे
इससे पहले कि
दामन होता तार - तार
रुक कर
झुक कर
एक -एक
चुन कर
निकालती रही कांटे
जो लिपटे पड़े थे दामन से ..
लहुलुहान हुई अंगुलियाँ
दर्द तब ज्यादा ना था
देखा जब करीब से
कोई बेहद अपना था...
दर्द की एक तेज लहर उठी
और उठ कर छा गयी
झिरी और गहरी हुई
टिप - टिप रिस रहा लहू
दर्द बस वहीँ था ...
दिल पर अभी तक है
उसी कांटे का निशाँ
इससे पहले कि
चेहरे पर झलक आये
दर्द के निशाँ
फिर से मैं मुस्कुरा ही दूंगी
फिर से लिख ही दूंगी प्रेम गीत
अभी जरा दामन सुलझा लूँ ...
शनिवार, 12 नवंबर 2011
हर घर में उस एक पत्ते को स्थिर कर दे!
गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011
तुम्हारी लीला तुम ही जानो !
रविवार, 2 अक्टूबर 2011
गर्भ हत्या का अपराध बोध उतार लेते हैं, नवरात्र में कन्याओं के चरण धोकर !
रविवार, 4 सितंबर 2011
रश्मि प्रभा जी का काव्य संसार!
निकल कर नैनों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान ...
सुमित्रा नंदन जी की ये पंक्तियाँ कविता निर्माण की प्रक्रिया की और इशारा करती हैं ...सूक्ष्म भावों की अनुभूति हीकविता है ...साहित्य की किसी अन्य विधा में मानव मन की अनुभूतियों को सीमित शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कियाजा सकता ..इस अभिव्यक्ति के लिए जिस शब्द-सम्पदा की आवश्यकता है , उन शब्दों के खजाने की मालकिन हैं रश्मिप्रभा जी ...जैसा की वे खुद कहती हैं " अगर शब्दों की धनी मैं ना होती तो मेरा मन, मेरे विचार मेरे अन्दर दमतोड़ देते...मेरा मन जहाँ तक जाता है, मेरे शब्द उसके अभिव्यक्ति बन जाते हैं, यकीनन, ये शब्द ही मेरा सुकूनहैं."...और ये शब्दों की संपदा उन्हें विरासत में मिली है ...इनकी माताजी श्रीमती सरस्वती प्रसाद स्वयं ख्यातनामकवयित्री है ,वटवृक्ष जैसे उनके व्यक्तित्व की छाँव में रश्मि प्रभा जी जैसे कवयित्री का जन्म अनहोना सा नहीं है ...
रश्मि प्रभा जी के पास अथाह शब्दों की पोटली है , जिसे खोल कर कविताओं के रूप में लुटाये जा रही है । इनकी रचनाओं में काव्य के विविध आयाम दृष्टिगोचर होते हैं। एक और जहाँ प्रकृति प्रदत्त नारीत्व और मातृत्वस्वाभाविक रूप से कविताओं
मानव और ईश्वर के बीच एक अदृश्य अनंत सीमा तक खिंची गयी प्रेम की डोर ही है जो इन्हें आपस में जोडती है ,यही प्रेम भक्ति में विकसित होता है । धार्मिक अनुभूति का द्वैत भी इनकी कविताओं में बार -बार दृष्टिगोचर होता है।कृष्ण- राधा के अनन्य प्रेम को इनकी कविताओं में भरपूर स्थान मिला है। इनकी कविताओं में विरह अग्निकुंड केदाह की तरह नहीं , बल्कि उपासना पूर्ण प्रेम की तरह अभिव्यक्त होता है .
कविताओं का आदर्शवाद कोरा सैद्धांतिक नहीं बल्कि मानवीय यथार्थ के धरातल पर टिका है । वे सिद्धार्थ को भी बता देती हैं यशोधरा के हुए बिना उनका बुद्ध बनना संभव नहीं था . मानिनी राधा युगों तक कृष्ण की प्रतीक्षा करेगी मगर स्वाभिमान गिरवी नहीं रखेगी ।
मुझसे मिले बगैर कृष्ण की यात्रा अधूरी होगी'
वहीँ रूठकर यह भी कहेगी ...
तुम मुझसे ही गीत क्यों सुनना चाहते हो , परमात्मा ने तुम्हे भी तो दी थी गीतों की पिटारी
कविताओं की सकारात्मकता थके सहमे क़दमों को गिरकर संभलने का भरपूर हौसला और प्रेरणा देती है। जीवनके प्रति शोधपूर्ण दृष्टि रखते हुए उम्मीद के सितारे हमेशा रौशन है यहाँ । संस्कारों की थाती संभाले भी धमकियाँदेने से गुरेज नहीं है ।
कविताओं की जीवनदायी शक्ति और प्रेरणा .के साथपौराणिक पात्र भी इनकी कविताओं में स्थान पाते रहे हैं . दोमहारथी , एकलव्य काअंगूठा , दानवीर कर्ण , हरी का जन्म , सीता माता का अपमान ऐसी ही कवितायेँ हैं .
शनिवार, 20 अगस्त 2011
तुम्हारा पिता होना !

प्रिय
तुममे में जो मुझे सबसे प्रिय है
वह है
तुम्हारा पिता होना ...
सृष्टि का नियम
माँ के गर्भ में पलना
एक जीवन को
आकार में ढलते देखना
सींचा जिन्हें अपने रक्त से
अपने गर्भ में
जुड़े रहे गर्भनाल से ...
आश्रित रहे माँ की गोद में
ममता का उफान ही
करता काया का विस्तार
उनसे तन और मन का जुड़ जाना
विस्मित करता है
मगर फिर भी
प्राकृतिक ही तो है ...
मगर
गोद में दे दी गयी संतान को
यह बता भर देना कि तुम्हारी है
कितनी पुलक से भर देता है तुम्हे ...
जागते -सोते तुम उसके साथ
उँगलियाँ पकड़कर कर चलाना
पीठ पर सवारी कराना
नन्हे क़दमों की रुनझुन को
मुग्ध निहारते
छिले घुटने झाड़ते
उनकी छोटी सी उपलब्धि से
छलछलाते मोहित नयन
अपनी सीमा से बढ़ कर
हर ख्वाहिश पूरी करने की होड़ ...
सच में
विस्मित करता है मुझे
वह कौन सी अदृश्य डोर है
जो तुम्हे बांधती है
अपनी संतान से ...
मुग्ध नयनों में
दृष्टिगोचर होता है
उन्ही क्षणों में ...
उन मेघों के पीछे
चतुर्दिक दिव्य प्रकाश है
जिसका
वही दिनकर
हम सबका पिता !
चित्र गूगल से साभार !
बुधवार, 17 अगस्त 2011
रचना क्या है .....हुआ स्वप्न का दास !
ब्लॉग दुनिया में प्रवेश करते ही सर्व प्रथम हिमांशुजी और रश्मि प्रभा जी की कविताओं /रचनाओं से परिचय हुआ था , इसलिए कविताओं के लिए कविताकोश के बाद सबसे ज्यादा इन दोनों कवि /कवियत्री का ब्लॉग ही पढ़ा अब तक । बहुत समय पहले इन दोनों से ही अपने ब्लॉग पर इनकी कवितायेँ प्रकाशित करने की अनुमति ले ली थी। बहुत कुछ लिखा या संकलित रह जाता है आजकल करते हुए , कोशिश कर रही हूँ एक- एक कर पोस्ट कर दूं ...
आज हिमांशुजी की कवितायेँ...कविता की कल्पनाशीलता और रचना की उपयोगिता , दोनों अलग भाव है इन कविताओं में !
“रचना क्या है, इसे समझने बैठ गया मतवाला मन
कैसे रच देता है कोई, रचना का उर्जस्वित तन ।
लगा सोचने क्या यह रचना, किसी हृदय की वाणी है,
अथवा प्रेम-तत्व से निकली जन-जन की कल्याणी है,
क्या रचना आक्रोश मात्र के अतल रोष का प्रतिफल है
या फिर किसी हारते मन की दृढ़ आशा का सम्बल है ।
’किसी हृदय की वाणी है’रचना, तो उसका स्वागत है
’जन-जन की कल्याणी है’ रचना, तो उसका स्वागत है
रचना को मैं रोष शब्द का विषय बनाना नहीं चाहता
’दृढ़ आशा का सम्बल है’ रचना तो उसका स्वागत है ।
’झुकी पेशियाँ, डूबा चेहरा’ ये रचना का विषय नहीं है
’मानवता पर छाया कुहरा’ ये रचना का विषय नहीं है
विषय बनाना हो तो लाओ हृदय सूर्य की भाव रश्मियाँ
’दिन पर अंधेरे का पहरा’ ये रचना का विषय नहीं है ।
रचना की एक देंह रचो जब कर दो अपना भाव समर्पण
उसके हेतु समर्पित कर दो, ज्ञान और अनुभव का कण-कण
तब जो रचना देंह बनेगी, वह पवित्र सुन्दर होगी
पावनता बरसायेगी रचना प्रतिपल क्षण-क्षण, प्रतिक्षण ।
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मैं हुआ स्वप्न का दास मुझे सपने दिखला दो प्यारे ।
बस सपनों की है आस मुझे सपने दिखला दो प्यारे ॥
तुमसे मिलन स्वप्न ही था, था स्वप्न तुम्हारा आलिंगन
जब हृदय कंपा था देख तुम्हें, वह स्वप्नों का ही था कंपन,
मैं भूल गया था जग संसृति
बस प्रीति नियति थी, नियति प्रीति
मन में होता था रास, मुझे सपने दिखला दो प्यारे ।
सपनों में ही व्यक्त तेरे सम्मुख था मेरा उर अधीर
वह सपना ही था फूट पडी थी जब मेरे अन्तर की पीर,
तब तेरा ही एक सम्बल था
इस आशा का अतुलित बल था
कि तुम हो मेरे पास , मुझे सपने दिखला दो प्यारे ।
सोचा था होंगे सत्य स्वप्न, यह चिंतन भी अब स्वप्न हुआ
सपनों के मेरे विशद ग्रंथ में एक पृष्ठ और संलग्न हुआ ,
मैं अब भी स्वप्न संजोता हूँ
इनमें ही हंसता रोता हूँ
सपने ही मेरी श्वांस, मुझे सपने दिखला दो प्यारे ।
गुरुवार, 11 अगस्त 2011
तू बतला दे मेरे चंदा ....
लाता है सन्देश पिया का ,
उस तक भी पहुंचाता होगा
तू बतला दे मेरे चंदा ,
पी तुझसे तो बतियाता होगा ...
करवट बदलूँ जब रातों में
वो भी नींद गंवाता होगा
जी भर कर जब देखूं तुझको
वो भी नैन मिलाता होगा ...
मद्धम तेरी चांदनी हुई आज
प्रिय छत पर आता ही होगा
अवगुंठन जब खोले सजनी
तू बादल में छिप जाता होगा ...
शीतल चांदनी अंग जलाये
दाह से वो जल जाता होगा
याद उसे जब वो लम्हे आये
लाज से वो शरमाता होगा ...
पलकें मेरी भीगी -सी हैं
वो भी नीर बहाता होगा
फूलों- सी शबनम की चादर
ओढ़ सुबह सो जाता होगा ...
मीठे गीतों की स्वर लहरी
बंसी धुन वो बजाता होगा
तेरे जाने की आहट सुन
अब वो भी घर को आता होगा ...
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