दोस्त बनकर गले लगाता है वही
पीठ पर खंजर भी लगाता है वही....
बेवफाई से उसकी अनजान नहीं हरगिज़
मगर यह रस्म भी तो निभाता है वही ....
मुतमईन ना कैसे हो अंदाज- ए - गुफ्तगू से
झूठ पर सच का लिबास चढ़ाता है वही ....
लबों पर जिसके उदास मुस्कराहट तक मंजूर नहीं
झूठी सिसकियाँ लेकर जार- ज़ार रुलाता है वही ....
साए में जिसके हमें महफूज़ समझता है ये जहाँ
हर सुकून हमारा दिल से मिटाता भी है वही
मेरे लफ़्ज़ों से शिकायत बहुत है जिसको
अपने गीतों में उन्हें सजाता भी तो है वही ....
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पीठ पर खंजर भी लगाता है वही....
वफा की जो रोज़ कसमें खाता है
करवटों संग बदल जाता है वही.....
बंद पलकों में हैं ख्वाब जिसके सजे
खुले आम लूट ले जाता है वही.....
तोड़ गया है जो इक रिश्ते की गिरह
आह किस अदा से मुस्कुराता है वही....बेवफाई से उसकी अनजान नहीं हरगिज़
मगर यह रस्म भी तो निभाता है वही ....
मुतमईन ना कैसे हो अंदाज- ए - गुफ्तगू से
झूठ पर सच का लिबास चढ़ाता है वही ....
लबों पर जिसके उदास मुस्कराहट तक मंजूर नहीं
झूठी सिसकियाँ लेकर जार- ज़ार रुलाता है वही ....
साए में जिसके हमें महफूज़ समझता है ये जहाँ
हर सुकून हमारा दिल से मिटाता भी है वही
मेरे लफ़्ज़ों से शिकायत बहुत है जिसको
अपने गीतों में उन्हें सजाता भी तो है वही ....
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साभार ...प्रेमचंद गाँधी
पुनः प्रकाशित