कठोर आवरण की ओट में
नन्हे नाजुक कदम बढ़ाते देख
घोघा बसंत कह
हंसने वालों का साथ देते
कई बार आत्मग्लानि में
सिहरा मन
जाने कितनी धूप
कितनी बारिश
कितनी सर्दी
झेलकर पाई होगी यह कठोरता
जैसे कि कर्कशा स्त्रियाँ!
जरा सी आहट पर
सिकोड़ कर कदम अपने
घुस जाते हैं खोल में
खोल कर एक सिरा
हलके से परे झांकते
जाने कितने भय रहे होंगे
जैसे कि भयभीत स्त्रियाँ !
होती हैं एक दूसरे से विपरीत
भयभीत और कर्कशा स्त्रियाँ !
मगर फिर भी कितनी एक -सी
घोंघा -सी ही होती जाती हैं स्त्रियाँ !!
नोट -गद्य कह पढ़ ले या कहें कविता , आपकी मर्जी !!