शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

स्त्रियाँ होती हैं ........ऐसी भी, वैसी भी


स्त्रियों का होना है जैसे खुशबू , हवा और धूप ....
और अब स्त्रियाँ होती हैं ऐसी भी , वैसी भी ....



स्त्रियाँ
होती हैं ऐसी भी
स्त्रियाँ होती हैं वैसी भी

स्त्रियाँ आज भी होती हैं
वैदेही -सी
चल देती हैं पल में
त्याग राजमहल के सुख- वैभव
खोलकर हर रिश्ते की गाँठ
जीवन -पथ गमन में
सिर्फ पति की अनुगामिनी

मगर सती कहलाने को
अब नहीं सजाती हैं
वे स्वयं अपनी चिता
अब नही देती हैं
वे कोई अग्निपरीक्षा....


स्त्रियाँ आज भी होती हैं
पांचाली- सी
अपमान के घूंट पीकर
जलती अग्निशिखा -सी
दुर्योधन के रक्त से
खुले केश भिगोने को आतुर
किन्तु अब नहीं करती हैं
वे पाँच पतियों का वरण
कुंती या युधिष्ठिर की इच्छा से


स्त्रियाँ ऐसी भी होती हैं
स्त्रियाँ वैसी भी होती हैं
बस तुमने नहीं जाना है
स्त्रियों का होना जैसे
खुशबू, हवा और धूप

बुधवार, 22 सितंबर 2010

स्त्रियों का होना है जैसे खुशबू , हवा और धूप ....







स्त्रियाँ रचती हैं सिर्फ़ गीत
होती हैं भावुक
नही रखती कदम
यथार्थ के कठोर धरातल पर
ख्वाबों सा ही होता है
उनका जहाँ
सच कहते हो
स्त्रियाँ ऐसी ही होती है

पर

स्त्रियाँ ऐसी भी भी होती हैं

बस तुमने ही नहीं जाना है
उनका होना जैसे
खुशबू ,हवा और धूप

मन आँगन की महीन- सी झिरी से भी
छन कर छन से जाती हैं
सुवासित
करती हैं घर आँगन
बुहार देती हैं कलेश , कपट , झूठ
सर्दी
की कुनकुनी धूप सी
पाती हैं विशाल आँगन में विस्तार
आती
हैं लेकर प्रेमिल ऊष्मा का त्यौहार
रचती
हैं स्नेहिल स्वप्निल संसार
पहनाती
बाँहों का हार छेड़ती जैसे वीणा के तार

क्या नहीं जाना तुमने
स्त्रियों
का होना
माँ , बहन , बेटी , प्रेयसी


अनवरत श्रम से
मानसिक थकन से
लौटे पथिक को
झुलसते क्लांत तन को
विश्रांत मन को देती हैं
आँचल की शीतलता का उपहार

क्या कहा ...
नही जाना तुमने
होना उनका जैसे
खुशबू , हवा और धूप

जानते भी कैसे...
हथेली तुम्हारी तो बंद थी
पुरुषोचित दर्प से
तो फिर
मुट्ठी में कब कैद हुई है
खुशबू , हवा और धूप.....



स्त्रियाँ होती हैं ऐसी भी......क्रमशः

चित्र गूगल से साभार ...
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रविवार, 19 सितंबर 2010

तब ही तो जान तुम पाओगे ...




पगतलियों
के छालों को सहलाते
भींचे लबों से जब कुछ गुनगुना पाओगे

अश्रु छिपे कितने मुस्कुराती आँखों के सागर में
तब ही तो समझ तुम पाओगे...

रंग -रूप ,यौवन, चंचलता से नजर चुरा कर
जब मुझसे मिलने पाओगे

सौन्दर्य रूह का है कितना उज्जवल कितना पावन
तब ही तो जान तुम पाओगे......





रविवार, 12 सितंबर 2010

मैं पूर्ण हुई ....सम्पूर्ण हुई .....






मिचमिचाती अधमुंदी पलकों में
सपनीले मोती जगमगाए
मेरी सूनी गोद भर आई
जब यह नन्ही कली मुस्कुराई
मैं अकिंचन, हुई वसुंधरा ...

ब्रह्माण्ड मेरी गोद में समाया
रीता था जीवन कलश
लबालब भर छलक आया
थपेड़े गर्म हवाओं के
शीतल हो गए
लगा उसे सीने से अपने
मैं पूर्ण हुई ...सम्पूर्ण हुई


कभी अंगुली थामे
कभी गिरते -पड़ते ...
पकड़ आँचल की कोर
उठ खड़ी होती बार- बार
ठुमक चलती मेरे आँगन में

मुट्ठियों में भर लाती
रेत जैसे कारू का खजाना
खुद खाती मुझे खिलाती
भूख प्यास बिसरी सब मेरी
आजीवन मैं तृप्त हुई
मैं पूर्ण हुई ...सम्पूर्ण हुई


खेलती कभी आँख मिचौली
कभी भाग गोद में छिप जाती
कभी लिटाती गोद में अपने
मां मैं तेरे बाल बनाऊं
कंघी उलझाती बालों में
उलझी लटों को सुलझाने में
मैं सब अपनी उलझन भूली
खिली मेरे बगिया में कली
भर गया मेरा अधूरापन
अब कोई सपना अपना नहीं
थमा उसे सपनों की पोटली
निश्चिंत हुई ...
मैं पूर्ण हुई
सम्पूर्ण हुई....




कुछ अनगढ़े से मगर भावपूर्ण शब्द ....


चित्र गूगल से साभार ...