मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

प्रेम में सब जायज़ है ....

रोज एक झूठ
कितने बहाने
विजयी मुस्कान
असत्य के हिंडोले में
झूलते कई बार
तड से ताड़ लेती हैं
आँखें मन की
मन की बातें !
दन से मुस्कुरा देती है...
इस अमृतमयी मुस्कान को ही तो
पिया जाता है हर रोज
गरल असत्य का ...

बुद्धू बनाया!
बुद्धू कही का!
दो चेहरे
आमने -सामने
मुस्कुराते हैं
एक दूसरे के लिए ही!
हर असत्य से बढ़कर
सत्य यही है ...

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

लिख देने भर से कुछ होता है/नहीं है ....




कभी कभी खयाल आता है
लिख देने से भला क्या होता है
लिखते तो हो तुम रोज अख़बारों में
धन्ना सेठों की बड़ी गाड़ियाँ
जहाँ रूकती हैं देर रात गये
उसी फलानी रोड पर रेड लाईट एरिया है !
उस नुक्कड़ के पान की दूकान पर नशे के सौदागर ...
उसे जला दिया दहेज़ के लोभी ससुराल वालों ने
या हो गयी बहू चम्पत सारे गहने रूपये समेट कर..

छोटे मासूम बच्चे को बहला फुसला ले गया कोई
किसी फ़कीर की खोली से मिला वही डरा सहमा -सा .
इबादत/ पूजा के पवित्र स्थल के अंडर ग्राउंड में
गुरु चेले पकडे गये आपत्तिजनक अवस्था में ...
पत्नी को लिवा लेने जाने वाला पुरुष
मृत मिला ससुराल की चौखट पर ...
एक स्त्री जिन्दा या मुर्दा झोंक दी गयी
जब तक अस्थियों की वकालत ना मिले
उसे जिन्दा /मुर्दा कैसे माने...
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट ना लिख दे जब तक !

पकडे गये घोटालों / कालाबाजारी/ सट्टे के अपराधी
निचले स्तर के चोरों /आम इंसानों के लिए
नरक से बदतर जिंदगी है जहाँ
पकड़े जाते हैं कुछ ऊँचे रसूख वाले
उनके लिए जेल भी घर -सा ही होता है !

और ऐसी ही अनगिनत घटनाएँ भी
जिनको पढना सिर्फ पढना नहीं होता
बारहा उस भयानक दर्द से गुजरना होता है !

लिख देने से क्या बदल जाता है यह सब ...
नहीं ना ....

तभी तो कभी- कभी ख्याल आता है
आखिर लिख देने भर से क्या होता है !!

मगर तुम ही तो हो ,जो कहते हो
लिखने से बहुत कुछ होता है !
लिखने से जिन्दा मुर्दा साबित किये जा सकते हैं
मुर्दा दिलों में हरकत की जा सकती है
लिख कर ही तो बांटे जाते हैं चरित्र के प्रमाणपत्र
लिख कर ही किया जाता है साबित सच का झूठ
लिख कर ही तो किया जाता है लिखने वाले पर तंज
लिखने से ही तो सब होता है ...
फर्क इतना है, लिखते सब अपनी सुविधा से हैं ...
श्रम कानून पर लिखने वाले बच निकलते हैं
दुराचार की ख़बरों से...
नारी के आंसूंओं पर पिघलने वाले मुंह फेर लेते हैं
प्रताड़ित पुरुषों की समस्या से ...
विदेशी कुसंस्कारों की पड़ताल करने वाले
स्वदेशियों के अमर्यादित आचरण पर पर्दा डाल देते हैं ...
लिखते सब है ,बस अपनी -अपनी सुविधा से !

तुम्हे ही तो विश्वास है
लिखने से सब होता है ....
तुम्हारे इसी विश्वास को कायम रखने वाले ही
कुछ और लोंग लिखते हैं तुमसे अलग ...
जो तुम्हे नजर नहीं आता , वे देख पाते हैं !!
उन्होंने सोचा होता है वैसा
जलप्रलय के बाद पर्वत- शिखर पर
बैठ कर मनु के ही जैसा ...
जैसे वह बच्चा निकल पड़ा था
बरसात से बचने के लिए छतरी लेकर
ईश्वर के आगे कड़ी धूप में
प्रार्थना करते लोगों के बीच ...
ज्वालामुखी के लावे की आंच पर
तपे हुए ये लोंग लिखते हैं
फूल, चाँद, तारों पर कवितायेँ ....
दृढ विश्वास, आस्था, शक्ति के प्रवचन ,
गहन निराशा में भी आशा के प्रतीक
अन्धकार में प्रकाश के दिग्दर्शक !!
ये वही लोंग हैं जो गाते हैं
युद्ध में प्रेम के गीत ...
इस सच्चाई से रूबरू हैं ...
प्रेम की आवशयकता अधिक है
युद्ध के दिनों में ही ...
वही सुनाते हैं तुम्हे
मौत के जलसे में जीवन के गीत ...
जब लड़कर थककर घर आयेंगे
किसी दिन वे लोंग
किसी दिन जीत कर तो
किसी दिन हार कर भी ...
लौट कर आना होगा
इन्ही के पास
जैसे अंगुलिमाल , आम्रपाली
या अशोक लौटे थे एक दिन ...
नवजीवन संचार के यही गीत
हर नए दिन की आस जगायेंगे
तब ही कर पाएंगे फिर से
एक नए दिन की शुरुआत ...
वरना गहन अँधेरे में डूबकर सिसकते -घिसटते
मार दिए जायेंगे अपने ही अंधेरों के हाथों ...

इसलिए मेरे दोस्त
जब तुम्हे है विश्वास
तुम्हारे लिखने से कुछ होता है
तो दूसरों के लिखने से भी कुछ होता है जरूर !

इसलिए ही आज भी सार्थक है
सिद्धार्थ का बुद्धत्व !
अंधे सूरदास का वात्सल्य !
कबीर की वाणी के संग
बुल्ले शाह का अशरीरी प्रेम !
रहीम , रसखान, मीरा के गीत !
बिहारी के दोहे और कान्हा की प्रीत !




रविवार, 27 नवंबर 2011

लिख देना फिर कभी कोई प्रेम भरा गीत ....

बहुत दिनों से कोई कविता लिखी नहीं , कई बार यूँ ही खामोश रह जाना अच्छा लगता/रहता है ... जैसे समुद्र के किनारे बैठे लहरों को गिनते रहना चुपचाप , लहरों का तेजी से मचलकर आना और उतनी ही फुर्ती से उछलकर फिर से और दूर पीछे हट जाना देखते रहना चुपचाप ...कभी विचारों का प्रवाह भी समंदर की लहरों के जैसा ही होता है ..बहुत कुछ उमड़ता घुमड़ता रहता है और फिर उतनी ही तेजी से गायब ...पानी में या हवा में तैरते बुलबुले से, जैसे ही पकड़ने की कोशिश करो , गायब ...बहुत कुछ सोचना , विचारना, लिखने बैठो तो कलम चलने से इंकार कर देती है .. कब होता है ऐसा ...जब हम बहुत कुछ लिखना चाह्ते हैं , मगर लिखते नहीं ...क्यों??
पता नहीं ...या सब पता है ...

इस उलझन से झूलते- निकलते नया कुछ लिखा नहीं गया तो सोचा एक पुरानी अतुकांत कविता को तुक में लगाने की ही कोशिश कर ली जाये और इस ब्लॉग पर अपनी सभी कविताओं को सहेजने का क्रम भी बना रहे ......
कैसा है यह प्रयास ??

लिख देना फिर कोई प्रेम भरा गीत
अभी जरा अपना दामन सुलझा लो .
मचानों पर चढ़ा रखे हैं ख्वाब तुमने
अब जरा जमीन पर कदम तो टिका लो .
अंसुअन फुहार से सीला है आँचल
तन -मन जरा इसमें और भीगा लो .

लहूलुहान अँगुलियों में दर्द होगा ज्यादा
बिछाता है कौन काँटें नजर को हटा लो .
खींचे संग आते हैं जो दामन में कांटे
करीने से इनको झटक कर हटा लो .

दर्द की लहर रिस रहा जो लहू है
झीना ही सही इन पर परदा लगा लो .
चेहरे पर झलकें ना दर्दे निशानी
पहले जरा खुल कर मुस्कुरा लो.

और अब पहले लिखी गयी अतुकांत कविता ज्ञानवाणी से


लिख ही दूँगी फिर कोई प्रेम गीत
अभी जरा दामन सुलझा लूं ....

ख्वाब मचान चढ़े थे
कदम मगर जमीन पर ही तो थे
आसमान की झिरियों से झांकती थी
टिप - टिप बूँदें
भीगा मेरा तन मन
भीगा मेरा आँचल
पलट कर देखा एक बार
कुछ कांटे भी
लिपटे पड़े थे दामन से
खींचते चले आते थे
इससे पहले कि
दामन होता तार - तार
रुक कर
झुक कर
एक -एक
चुन कर
निकालती रही कांटे
जो लिपटे पड़े थे दामन से ..

लहुलुहान हुई अंगुलियाँ
दर्द तब ज्यादा ना था

देखा जब करीब से
कोई बेहद अपना था...
दर्द की एक तेज लहर उठी
और उठ कर छा गयी
झिरी और गहरी हुई
टिप - टिप रिस रहा लहू
दर्द बस वहीँ था ...
दिल पर अभी तक है
उसी कांटे का निशाँ
इससे पहले कि
चेहरे पर झलक आये
दर्द के निशाँ
फिर से मैं मुस्कुरा ही दूंगी

फिर से लिख ही दूंगी प्रेम गीत
अभी जरा दामन सुलझा लूँ ...


शनिवार, 12 नवंबर 2011

हर घर में उस एक पत्ते को स्थिर कर दे!


कभी कभी यूँ भी होता है ...
निष्ठां, प्रेम, विश्वास
से बने आशियाने
झूलने लगते हैं
अविश्वास , शक
अपमान ,तिरस्कार के भूचालों से ...
चूलें चरमराने लगती हैं
जैसे बने हो ताश के पत्ते के घर
एक पत्ता हिला और सब बिखर गया..
आंसू भरी आँखों से
कितनी शिकायतें बह जाती है
काली अँधेरी- सी रात गले लग कर सिसकती है ...
उस अँधेरे में ही एक लकीर रौशनी की
जैसे कह उठती है ...
बस यह एक रात है अंधरे की ...
इसे गुजर जाने दो ...
सुबह सब कुछ वही धुला- धुला सा!
यही विश्वास बनाये रखता है
उस एक पत्ते को स्थिर ...
और फिर से वही मजबूत बुनियादें
हंसी - मुस्कुराहटों का साम्राज्य !
अँधेरी रातें उजली सुबह में बदल जाती हैं...
विश्वास हो बस कि ये भी गुजर जाएगा !
और वह हथेलियों को जोड़कर
उस अदृश्य से
प्रार्थना करती है ...
हर घर में उस एक पत्ते को स्थिर कर दे...
सबके जीवन के अंधेरों में उजाला भर दे !


गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

तुम्हारी लीला तुम ही जानो !


षड़यंत्र करती राधा ,
गोपियों की चुगलखोरी
मीरा की जुगुप्सा ....
यशोदा की ममता में मिलावट
जो ना हो साबित ...
तो हैरानी क्या!
तुमसे कैसा शिकवा ,कान्हा ...

जानती हूँ ...
तिरछे नयनों से, भंवर पड़ते गालों से
मुस्कुरा कर कह दोगे
"सुनती ही नहीं थी
तुम्हे कैसे चेताता
कलियुग है ! "

तुम पर मेरा अमिट विश्वास
तुम्हारी लीला तुम ही जानो !

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

गर्भ हत्या का अपराध बोध उतार लेते हैं, नवरात्र में कन्याओं के चरण धोकर !



कूड़े के ढेर पर दो नवजात बच्चियां
बचा ली गयी ...
चींटियों के ढेर ने निगल ली थी एक आँख जिसकी
बचा ली गयी ...
अखबार की एक खबर ही तो है कुछ लोगो के लिए !
लड़कियां मरती नहीं , कैसे भी बच जाती है !
इन फुसफुसाहटों के बीच कान पर हाथ रख चींखने को मन करता है !

लोंग कैसे भूल पते हैं इन ख़बरों को
कि कूड़ेदान में पाई गयी नवजात बच्ची की लाश...
थैलियों में लिपटे पड़े मिले टुकड़े- टुकड़े भ्रूण
जो यकीनन जन्म लेने वाली बेटियों के ही थे ...

डॉक्टरों की टीम से घिरे हुए भी
एक गर्भवती मर गयी अस्पताल में
चार महीने का गर्भ गिराते
या फिर कोख इस लायक ही ना रही कि
और बच्चियों को जन्म दे सके ...

भूल जाते हैं हम सब ...
अखबार की हेड लाईन्स का क्या
रोज बदलती हैं ...



कोई सिलसिला नहीं है अखबार की ताजा खबरों और
पौराणिक कथाओं के गुत्थम- गुत्था होने का
मगर मुझे याद आ जाती है ...

यशोदा माँ की दुधमुंही
जिसने अभी ठीक से आँखें नहीं खोली थी...

मुट्ठियाँ भींचे सिकुड़ी- सी
माँ के आँचल की गर्मी में कुनकुनाती...
सुलाकर अपने पुत्र को
उस पुत्री को
उठा ले गये वसुदेव ...

किसी के पुत्र की रक्षा के लिए
किसी की पुत्री का बलिदान आवश्यक था ....
सच बताना जो यशोदा का पुत्र होता
तब भी उसे ले जाना इतना आसान ही होता !!!
महामाया का अंश थी वह पुत्री
बच गयी जालिम कंस के हाथों ...
धिक्कारती , फुफकारती चेता गयी ...
तू मुझे क्या मारेगा , तुझे मारने वाला जन्म ले चुका है !

अब वह युग नहीं कि हर कन्या महामाया बन कर जन्म ले ...
और कहाँ कंस जैसे मामा का होना ज़रूरी है !
जब बन रहे हो स्वयं माँ- बाप ही हत्यारे !
मन ही मन कंस को माफ़ कर देने का मन होता है !
पुत्र के गर्वित माता -पिता
गर्भ हत्या का अपराध बोध उतार लेते हैं
नवरात्र में कन्याओं के  चरण   धोकर !
आज भी पुत्र के अस्तित्व की रक्षा के लिए
गर्भ में ही बेटियों का मर जाना तय है ....


रविवार, 4 सितंबर 2011

रश्मि प्रभा जी का काव्य संसार!

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान
निकल कर नैनों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान ...

सुमित्रा नंदन जी की ये पंक्तियाँ कविता निर्माण की प्रक्रिया की और इशारा करती हैं ...सूक्ष्म भावों की अनुभूति हीकविता है ...साहित्य की किसी अन्य विधा में मानव मन की अनुभूतियों को सीमित शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कियाजा सकता ..इस अभिव्यक्ति के लिए जिस शब्द-सम्पदा की आवश्यकता है , उन शब्दों के खजाने की मालकिन हैं रश्मिप्रभा जी ...जैसा की वे खुद कहती हैं " अगर शब्दों की धनी मैं ना होती तो मेरा मन, मेरे विचार मेरे अन्दर दमतोड़ देते...मेरा मन जहाँ तक जाता है, मेरे शब्द उसके अभिव्यक्ति बन जाते हैं, यकीनन, ये शब्द ही मेरा सुकूनहैं."...और ये शब्दों की संपदा उन्हें विरासत में मिली है ...इनकी माताजी श्रीमती सरस्वती प्रसाद स्वयं ख्यातनामकवयित्री है ,वटवृक्ष जैसे उनके व्यक्तित्व की छाँव में रश्मि प्रभा जी जैसे कवयित्री का जन्म अनहोना सा नहीं है ...

रश्मि प्रभा जी के पास अथाह शब्दों की पोटली है , जिसे खोल कर कविताओं के रूप में लुटाये जा रही हैइनकी रचनाओं में काव्य के विविध आयाम दृष्टिगोचर होते हैंएक और जहाँ प्रकृति प्रदत्त नारीत्व और मातृत्वस्वाभाविक रूप से कविताओं
में सहज स्नेह और प्रेम के रूप में आलोड़ित होता है शब्दों
को भी ये बच्चों सा-ही नहलाती - धुलाती हैं और गोद में झुलाती भी हैं , इस स्नेह में आकंठ आप्लावित पाठक ठुमकने को विवश होजाता है तो लड़खड़ाते क़दमों को अंगुली भी थमा देती हैं . कवितायेँ पढ़ते पाठक इन्ही अनुभूतियों को जीने लगता है... वही दूसरी और शालीनता , गुरुता और गंभीरता लिए कविताओं में अनुभूतियों की तीव्रता रहस्यलोक मेंविचरण करा लाती हैं . कवितायेँ एक तरह से आत्माभिव्यक्ति ही होती हैं और यदि इनमे आधुनिक बौद्धिकता केसाथ रहस्यात्मक कल्पना की प्रचुरता भी जुड़ जाए तो मौलिक और नूतन अभिव्यक्ति का सृजन होता ही है , वहीमौलिकता इनके काव्य संकलन में देखी जा सकती हैजीवन की तमाम विसंगतियों को नूतन अभिव्यक्ति के द्वाराअपने काव्य में उतारा है

मानव और ईश्वर के बीच एक अदृश्य अनंत सीमा तक खिंची गयी प्रेम की डोर ही है जो इन्हें आपस में जोडती है ,यही प्रेम भक्ति में विकसित होता हैधार्मिक अनुभूति का द्वैत भी इनकी कविताओं में बार -बार दृष्टिगोचर होता हैकृष्ण- राधा के अनन्य प्रेम को इनकी कविताओं में भरपूर स्थान मिला हैइनकी कविताओं में विरह अग्निकुंड केदाह की तरह नहीं , बल्कि उपासना पूर्ण प्रेम की तरह अभिव्यक्त होता है .
कविताओं का आदर्शवाद कोरा सैद्धांतिक नहीं बल्कि मानवीय यथार्थ के धरातल पर टिका हैवे सिद्धार्थ को भी बता देती हैं यशोधरा के हुए बिना उनका बुद्ध बनना संभव नहीं था . मानिनी राधा युगों तक कृष्ण की प्रतीक्षा करेगी मगर स्वाभिमान गिरवी नहीं रखेगी

मुझसे मिले बगैर कृष्ण की यात्रा अधूरी होगी'
सोचकर आँखें मूंद लीं
प्रतीक्षा के पल पलकों का कम्पन बन गए
प्रेममई राधा कैसे विश्वास तजती


वहीँ रूठकर यह भी कहेगी ...
तुम मुझसे ही गीत क्यों सुनना चाहते हो , परमात्मा ने तुम्हे भी तो दी थी गीतों की पिटारी


कविताओं की सकारात्मकता थके सहमे क़दमों को गिरकर संभलने का भरपूर हौसला और प्रेरणा देती हैजीवनके प्रति शोधपूर्ण दृष्टि रखते हुए उम्मीद के सितारे हमेशा रौशन है यहाँसंस्कारों की थाती संभाले भी धमकियाँदेने से गुरेज नहीं है
अति सहनशीलता मन की कायरता है ,
उम्मीद का दामन
थामे टूटी गुडिया के सिंड्रेला
बनने की कहानी और किसीभी निराशाजनक पल में विश्वास और मुस्कान का दामन ना छिटकने देने का आत्मविश्वास

कविताओं की जीवनदायी शक्ति और प्रेरणा .के साथपौराणिक पात्र भी इनकी कविताओं में स्थान पाते रहे हैं . दोमहारथी , एकलव्य काअंगूठा , दानवीर कर्ण , हरी का जन्म , सीता माता का अपमान ऐसी ही कवितायेँ हैं .
कृष्ण के मानवीय या आध्यात्मिक ,दोनों ही चरित्रों पर उन्होंने घनघोर लिखा है .
कृष्ण के जीवन में राधा थी तो रुक्मिणी क्यों हुई , तर्कवादियों को यह कहते हुए कि अतिरिक्त समझ कर क्या होगा चुप कर देती हैं . वास्तव में आध्यात्मिक प्रेम और समर्पण तर्क की विषयवस्तु है ही नहीं . इनकी एक- एक रचना मिलकर अनमोल मोतियों की लड़ी बन गयी है . चयन करना हो तो सोचना पड़ता है , किसे पकडे , किसे छोड़े ! ऐसा ही है इनका रहस्यमय एवं आध्यात्मिक काव्य संसार !

गागर में सागर- सा इनका काव्यलोक सफल सृजन यात्रा पथ पर बौद्धिक चेतना और रचनात्मक चिंतन से भरपूर है. अनागत इनकेसृजनात्मक व्यक्तित्व कलात्मक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के प्रति स्वागत मुद्रा में प्रतीक्षित है !

शनिवार, 20 अगस्त 2011

तुम्हारा पिता होना !




 प्रिय 
तुममे में जो मुझे सबसे प्रिय है
वह है
तुम्हारा पिता होना ...

सृष्टि का नियम
माँ के गर्भ में पलना
एक जीवन को
आकार में ढलते देखना
सींचा जिन्हें अपने रक्त से
अपने गर्भ में
जुड़े रहे गर्भनाल से ...
आश्रित रहे माँ की गोद में
ममता का उफान ही
करता काया का विस्तार
उनसे तन और मन का जुड़ जाना
विस्मित करता है
मगर फिर भी
प्राकृतिक ही तो है ...

मगर
गोद में दे दी गयी संतान को
यह बता भर देना कि तुम्हारी है
कितनी पुलक से भर देता है तुम्हे ...
जागते -सोते तुम उसके साथ
उँगलियाँ पकड़कर कर चलाना
पीठ पर सवारी कराना
नन्हे क़दमों की रुनझुन को
मुग्ध निहारते
छिले घुटने झाड़ते
उनकी छोटी सी उपलब्धि से
छलछलाते मोहित नयन
अपनी सीमा से बढ़ कर
हर ख्वाहिश पूरी करने की होड़ ...


सच में
विस्मित करता है मुझे
वह कौन सी अदृश्य डोर है
जो तुम्हे बांधती है
अपनी संतान से ...

मुग्ध नयनों में
दृष्टिगोचर होता है
उन्ही क्षणों में ...
उन मेघों के पीछे
चतुर्दिक दिव्य प्रकाश है
जिसका
वही दिनकर
हम सबका पिता !



चित्र गूगल से साभार !

बुधवार, 17 अगस्त 2011

रचना क्या है .....हुआ स्वप्न का दास !

कविता कम शब्दों में गहरी बात कहने में सक्षम होती है । ये कवि की कोरी कल्पना हो जो शब्दों के सिर चढ़कर अनदेखे , अनचीन्हे मधुरिम काल्पनिक लोक की सैर करा लाये या शब्दों से टपकती क्रूर निर्मम हकीकत , मुझे कवितायेँ बहुत लुभाती हैं .

ब्लॉग दुनिया में प्रवेश करते ही सर्व प्रथम हिमांशुजी और रश्मि प्रभा जी की कविताओं /रचनाओं से परिचय हुआ था , इसलिए कविताओं के लिए कविताकोश के बाद सबसे ज्यादा इन दोनों कवि /कवियत्री का ब्लॉग ही पढ़ा अब तक । बहुत समय पहले इन दोनों से ही अपने ब्लॉग पर इनकी कवितायेँ प्रकाशित करने की अनुमति ले ली थी। बहुत कुछ लिखा या संकलित रह जाता है आजकल करते हुए , कोशिश कर रही हूँ एक- एक कर पोस्ट कर दूं ...

आज हिमांशुजी की कवितायेँ...कविता की कल्पनाशीलता और रचना की उपयोगिता , दोनों अलग भाव है इन कविताओं में !

“रचना क्या है, इसे समझने बैठ गया मतवाला मन
कैसे रच देता है कोई, रचना का उर्जस्वित तन ।

लगा सोचने क्या यह रचना, किसी हृदय की वाणी है,
अथवा प्रेम-तत्व से निकली जन-जन की कल्याणी है,
क्या रचना आक्रोश मात्र के अतल रोष का प्रतिफल है
या फिर किसी हारते मन की दृढ़ आशा का सम्बल है ।

’किसी हृदय की वाणी है’रचना, तो उसका स्वागत है
’जन-जन की कल्याणी है’ रचना, तो उसका स्वागत है
रचना को मैं रोष शब्द का विषय बनाना नहीं चाहता
’दृढ़ आशा का सम्बल है’ रचना तो उसका स्वागत है ।

’झुकी पेशियाँ, डूबा चेहरा’ ये रचना का विषय नहीं है
’मानवता पर छाया कुहरा’ ये रचना का विषय नहीं है
विषय बनाना हो तो लाओ हृदय सूर्य की भाव रश्मियाँ
’दिन पर अंधेरे का पहरा’ ये रचना का विषय नहीं है ।

रचना की एक देंह रचो जब कर दो अपना भाव समर्पण
उसके हेतु समर्पित कर दो, ज्ञान और अनुभव का कण-कण
तब जो रचना देंह बनेगी, वह पवित्र सुन्दर होगी
पावनता बरसायेगी रचना प्रतिपल क्षण-क्षण, प्रतिक्षण ।

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मैं हुआ स्वप्न का दास मुझे सपने दिखला दो प्यारे ।
बस सपनों की है आस मुझे सपने दिखला दो प्यारे ॥

तुमसे मिलन स्वप्न ही था, था स्वप्न तुम्हारा आलिंगन
जब हृदय कंपा था देख तुम्हें, वह स्वप्नों का ही था कंपन,
मैं भूल गया था जग संसृति
बस प्रीति नियति थी, नियति प्रीति
मन में होता था रास, मुझे सपने दिखला दो प्यारे ।

सपनों में ही व्यक्त तेरे सम्मुख था मेरा उर अधीर
वह सपना ही था फूट पडी थी जब मेरे अन्तर की पीर,
तब तेरा ही एक सम्बल था
इस आशा का अतुलित बल था
कि तुम हो मेरे पास , मुझे सपने दिखला दो प्यारे ।

सोचा था होंगे सत्य स्वप्न, यह चिंतन भी अब स्वप्न हुआ
सपनों के मेरे विशद ग्रंथ में एक पृष्ठ और संलग्न हुआ ,
मैं अब भी स्वप्न संजोता हूँ
इनमें ही हंसता रोता हूँ
सपने ही मेरी श्वांस, मुझे सपने दिखला दो प्यारे ।

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

तू बतला दे मेरे चंदा ....




लाता है सन्देश पिया का ,
उस तक भी पहुंचाता होगा
तू बतला दे मेरे चंदा ,
पी तुझसे तो बतियाता होगा ...

करवट बदलूँ जब रातों में
वो भी नींद गंवाता होगा
जी भर कर जब देखूं तुझको
वो भी नैन मिलाता होगा ...

मद्धम तेरी चांदनी हुई आज
प्रिय छत पर आता ही होगा
अवगुंठन जब खोले सजनी
तू बादल में छिप जाता होगा ...

शीतल चांदनी अंग जलाये
दाह से वो जल जाता होगा
याद उसे जब वो लम्हे आये
लाज से वो शरमाता होगा ...


पलकें मेरी भीगी -सी हैं
वो भी नीर बहाता होगा
फूलों- सी शबनम की चादर
ओढ़ सुबह सो जाता होगा ...


मीठे गीतों की स्वर लहरी
बंसी धुन वो बजाता होगा
तेरे जाने की आहट सुन
अब वो भी घर को आता होगा ...
................................