मंगलवार, 22 जून 2010

मत रोको उन्हें ...उड़ने दो ...बहने दो .......




मत रोको
उड़ने दो उन्हें
उन्मुक्त गगन में
मुक्त
निर्द्वंद्व , निर्भय , निरंकुश
छू आने दो  उस छोर को
जहाँ तलाश सकती हैं
वे अपना अस्तित्व
जान सकती हैं
अपने होने का मतलब ...

मत बांधो
उन्हें
लक्ष्मण रेखाओं में
खुला रहने दो
उनका आसमान
फ़ैल जाने दो
उनके आसमान को
मुट्ठियों से निकलकर
तय करने दो
दूरियां अनंत तक ...

मत रोको
उड़ने दो उन्हें
छू आने दो
सितारों को
जुगनू से चमकते सपनो को को
बदल जाने दो
रोशनी बिखेरते सितारों में ...

मत रोको उन्हें
बहने दो
कल- कल नदिया सी
सूखे बंजर रेगिस्तान में
ठूंठ हुए वृक्षों को
दे सकती हैं
वे ही नवजीवन
नवपल्लवित शाखाएं

कर सको तो ये करो
सिखाओ उन्हें
कहाँ रुकना
कहाँ बहना
कितना बहना
कि
सूखी रेत
गहरे दलदल में ना तब्दील हो

कर सको तो बस इतना ही ....
सिखाओ उन्हें
कि
दूर दूर तक उड़ते
जमीन पर एक टुकड़ा
सुरक्षित रख सके
जहाँ टिका सकती हो वे कदम
जब उड़ने की शक्ति क्षीण होने लगे
त्रिशंकु की भांति ना लटकी रहे

सिखाओ उन्हें
कि खिंच सके
खुद अपनी लक्ष्मण रेखाएं ...
क्यूंकि
मुश्किल होता है
लांघना
खुद अपनी खिंची लक्ष्मण रेखाओं का

कर सको तो इतना करो
दिलाओ उन्हें इतना यकीन
थक हार कर लौटते भी
उनके लिए
कुछ बाहें
होंगी हमेशा खुली
कुछ राहें
होंगी हमेशा खुली ...

मत रोको उन्हें ...
उड़ने दो पंछी -सा ...
बहने दो नदिया -सी ....





चित्र गूगल से साभार ...



बुधवार, 16 जून 2010

मेरे घर की खुली खिड़की से ...



मेरे घर की खुली खिड़की से
अलसुबह
जगाता है मुझे
चिड़ियों का कलरव गान.....

ठिठोली कर जाती है
रवि की प्रथम किरण
अंगडाई लेते कई बार.....
पूरनमासी का चाँद भी
झेंपता हुआ सा
झांक लेता है बार -बार....
झर-झर झरते पीले फूल
देते हैं दस्तक
खिडकियों पर कई बार.....


मीठी तान छेड़ जाती है
मदमस्त हवा
चिलमन से लिपटकर बार-बा....
खिडकियों से ही नजर आती है
कुछ दूर ...बंद खिड़कियाँ ..
हवेली की ऊँची दीवार......


सुबह-शाम
देख कर उन्हें
सोचती हूँ
कई बार ....
ऊँचे जिनके मकान होते हैं
 अक्सर
छोटे कितने उनके आसमान होते हैं ....



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शनिवार, 5 जून 2010

और एक कविता बुन ली ...

और एक कविता बुन ली


पन्ना पन्ना खंगाले
शब्दकोष
सारे
मिले नही फिर भी
खो गए जो शब्द सारे
दूर
हाथ बांधे खड़े
कैसे
भांप ली ना जाने
अव्यक्त
होने की छटपटाहट
दो शब्द रख दिए चुपचाप
मेरी
बंजर हथेली पर
पुलकित
हुई नम हथेली पर
नेह की ऊष्मा से
कुकुरमुत्ते से
कई और
शब्द उग आए
उन दो शब्दों के आस पास
शब्द
वो चुन लिए सारे
और

एक कविता बुन ली .....




चपलता बचपन की



जादू की छड़ी .............
त्योरियां चढ़ा कर खिलखिलाना
कहकहे लगाना उसका
कनखियों में मेरा मुस्कुराना
उसने देखा नही शायद
मैंने ख़ुद को परी भी तो कहा .........





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चित्र गूगल से साभार
पुनः प्रकाशित

गुरुवार, 3 जून 2010

रूप का लोभी

रूप का प्यासा

रूप देख भरमाया

रूप ढला

जब आँख खुली

तन पिंजर ही पाया ...

पिछले दो दिनों से ये पंक्तियाँ दिमाग में घूम रही है ...इसे आगे लिख नहीं पा रही ...क्या आप मदद करेंगे ...!!

मंगलवार, 1 जून 2010

तुम्हारी आँखें

मेरी सूरत की पहचान तुम्हारी ऑंखें
मेरे दिल की निगेहबान तुम्हारी ऑंखें
जो राज़ कह सके लबों से
वो हर राज़ उगल गयी तुम्हारी ऑंखें

सुना है हमसे नाराज़ हो
यकीन होता तो क्यों कर
तुम्हारे दिल में हमारी मूरत
दिखा गयी तुम्हारी ऑंखें

हर सुबह हमें जगा कर गयी
हर शब् हमें रुला कर गयी
उभरे अश्क अपनी आँखों में
क्या तरल हुई तुम्हारी ऑंखें?

कश्ती टूटी पर पार कर ही आए
ग़मों की वो बहती दरिया
सहारा था तुम्हारा हमें
साहिल थी तुम्हारी ऑंखें

जिनमे संभलकर डूबे हम
जिनमे खोकर संभले हम
प्यार से प्यार जताती
हैं..सनम तुम्हारी ऑंखें

अपनी जुदाई का अफ़सोस क्या
अपने में समाये हैं तुम्हारी ऑंखें
हम किसी राह भी हो आयें
मंजिल है....तुम्हारी ऑंखें



पुनः प्रकाशित (पुरानी डायरी से )