गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

वह "काली" हो जाती है


प्रेम के विस्तृत आकाश में
खुशियों की पींगे झूलता
कुलांचे भरता मन
ठिठक जाता है ...
जब उसकी आँखों में
प्रेम के बदले
नजर आता है सिर्फ एक जानवर !!

जिसे उसकी काया के भीतर पलते मन की
ना खबर , ना फिक्र ...
ढूंढता है सिर्फ एक शरीर
बिना कीमत चुकाए पा सकता है जिसे बार -बार !!
उसकी काया में चुभती हैं हजारों सुईंयां
तलवों में उग आती हैं अनगिनत कीलें
ख़ूनी आँखों से देखती हैं
नखों का बन जाना शहतीरें...
मन ही मन कुचल देना चाहती है
आँखों में घुसकर इस जानवर को...
उतार लेना चाहती है त्वचा
खींचकर उसके तन से
उसके लहूलुहान चेहरे पर गढ़ देना चाहती है
अपने तलवों में उग आई कीलों के निशान ....

जिस दिन
उसका यह आभास हकीकत होता है...
वह "काली" हो जाती है !!


दर्द की अनुभूति की ही तो बात है ...पढना मेरा सिर्फ शौक नहीं , जुनून है ...जब कोई कहानी या उपन्यास पढ़ रही होती हूँ उसके चरित्र मेरे साथ उठते बैठते हैं , उनकी खुशियाँ और दर्द मेरे हो जाते हैं , इसलिए ही उस दर्द को बेहतर समझ पाती हूँ , बल्कि उसे जीने लगती हूँ!!
रश्मि की ये कहानी लिखवा लेती है मुझसे सब कुछ !!