सोमवार, 31 जनवरी 2011

पतझड़ के पहरेदार ......




रख लिया है कानों और आँखों पर हाथ
नहीं सुननी हैं वे आवाजें
नहीं देखना चाहती हूँ वे दृश्य
जो भर रहे है धीरे -धीरे हमारे भीतर
नफरत का जहर
वे चाकू से कुरेद कर निकाल देना चाहते हैं
हमारे कलेजे से
प्रेम का आखिरी कतरा तक ...

हमारे चारों ओर भर देना चाहते हैं ऐसी आग
जो सोख ले
हमारे जिगर से
प्रेम की आखिरी बूँद तक ...
नहीं सुनना चाहती हूँ नहीं देखना चाहती हूँ ...

उन्हें पहुँचाना है इसे फ्लुइड की तरह हमारी नस- नस में
कि हमारे भीतर स्पंदित हृदय बेजान हो जाये ...
हमारे दिमाग की नसों का खून उबल कर आँखों तक उतर आये ...
क्योंकि
हमारा धड़कता दिल
खुला दिमाग
उनके लिए व्यर्थ है ...
उन्हें चाहिए बस कुछ ऐसे खोल
जिनमे भर सके अपना कूड़ा करकट
और लगा दे आग कि
उस धुंए में राख होते रहे हमारे पास- पड़ोस
उन्हें चाहिए बस अस्तित्वविहीन कीट
जो बनाये रख सकते हों उनका वजूद ....

बचपन की किलकारियां
नदी की कलकल
चिड़ियों का चहकना ....
शोर लगता है जिन्हें नहीं सुननी है हमें उनकी आवाजें
जो चाहते हैं हमारे कान अभ्यस्त हो
चीख- पुकार, रोने बिलखने की आवाज़ों के ....
फूलों की खुशबू चुराकर भर देना चाहते हैं
गोला -बारूद ,लाशों की दुर्गन्ध

जिन्हें देता है अनिवर्चनीय आनंद
सूखे पत्तो पर चलने से उपजा संगीत
वे रोक देना चाहते हैं वसंत को ...
कानों को चुभती है उन्हें कोयल की तान
वे पतझड़ के पहरेदार ...


शनिवार, 22 जनवरी 2011

खिल गया फिर से वही गुलाब ....





मौसम आते है , जाते हैं ...
पतझड़ के बाद वसंत का आना तय है
फिर यह नाउम्मीदी क्यों ....
जाते वसंत में मुरझा गए थे कुछ पौधे ..
देखा उनकी सूखी डालों को काटकर ,
कुछ हरी -भरी शाखाएं अभी बाकी थी ...
उनकी फुनगी पर कुछ नन्हे पात
कुछ नव कलिकाएँ भी ....
हाँ , जरुरत थी उसे कुछ खाद , मिट्टी और दवाओं की ....
आज सुबह देखा ....
खिल गया फिर से वही गुलाब ...!


सोमवार, 3 जनवरी 2011

धरती के आराम ....लिख रहा है कही कोई प्रेम -पत्र




धरती के आराम
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कहीं कोई आवाज़ नहीं है
जैसे मैं शून्य मे प्रवेश कर रहा हूं
जैसे नवजात शिशु के रुदन स्वर से
दुनिया के तमाम संगीत आश्चर्य के साथ थम गये हैं
मेरी देह का सन्तुलन बिगड़ गया है
और वह लगातार कांपती हुई
पहली बारिश मे अठखेलियाँ करती
चिड़ियों की तरह लग रही है
मैं चाह्ता हूं इस वक्त दुनिया के
सारे काम रोक दिये जायें
यह धरती के आराम का समय है
न जाने कितने जन्मों की प्रतीक्षा के बाद
अनन्त कालों को लांघता हुआ मुझ तक पहुंचा है यह
मैं इसके शब्दों को छू कर मह्सूस करना चाह्ता हूं
तीन लोकों में फ़ैल गया है घोर आश्चर्य
सारे देवता हैरान- परेशान
दांतों मे उंगली दबाये भाव से व्याकुल
मजबूती से थामे अपनी प्रिया का हाथ
निहार रहे हैं पृथ्वी की ओर
कि जब संग- संग मारे जा रहे हैं प्रेमी
लगाया जा रहा है सम्मान पर पैबंद
प्रेम करती हुई स्त्री की खाल से
पुरुष कर रहे हैं पलायन
उनकी कोख में छोड्कर बीज
और एक क्रूर हत्यारा अट्टहास
फ़ैला है प्रेम के चहुंओर
कैसे सम्भव हुआ एक स्त्री के लिये
इस पृथ्वी पर प्रेम

एक अफ़वाह है जो फ़ैलने को है
एक हादसा है जिसे घट ही जाना है
एक राह है जिस पर
अन्गारे बिछाने की तैयारी है
एक घृणित कार्यवाई
बनाने को तत्पर है संस्कार
कलंक है एक भारी
जिसे धो देने को व्याकुल है सारा संसार
एक चैन की नींद
उस स्त्री की मृत्यु मे शामिल है
जो इन दिनों मुझसे कर रही है प्रेम
वे मेरा प्रेम पत्र पढने से पहले
उस स्त्री की मृत्यु चाह्ते हैं।



अनिल करमेले ...(लेखक)


अनिल जी की इस कविता ने इतना बांधा /बिंधा मन को ....कई -कई बार पढ़ा ...पढ़कर सोचती रही कई दिनों(अब तो महीनों कहना ही सही होगा ) तक कि किसी का लिखा प्रेमपत्र किसी स्त्री की मृत्यु का कारण कैसे हो सकता है ...प्रेम एक अनुभूति , निस्वार्थ भाव है ...पाप , अपराध , नफरत के अंधाधुंध विस्तारण के बाद भी यदि पृथ्वी टिकी हुई है तो वह एक मात्र कारण है ....मानव से मानव के बीच संचारित प्रेम .... प्रेम ना होता तो यह धरती शमशान होती.....संस्कारों के मुताबिक प्रेम की अभिव्यक्ति के प्रकार भिन्न हो सकते हैं ,
मगर प्रेम (वासना नहीं ) तो स्वयं जीवनदायी शक्ति है ....यह संहार का कारण कैसे हो सकती है ....
किसी महान व्यक्ति ने कहा भी है ... ‘प्रेम परमात्मा के दिव्य शरीर में संचारित होते हुए रक्त की भांति है। जीवन के लिए प्रेम ठीक ऐसा ही है जैसा कि तुम्हारे शरीर के लिए रक्त। वे इसके विरोध में कैसे हो सकते हैं?’ यदि तुम प्रेम-विरोधी हो जाओ तो तुम सिकुड़ने लगोगे।"
किसी को प्रेमपत्र लिखते देख कोई निर्मल ह्रदय क्या सोचता होगा ...
और यह सोचते -सोचते ही यह कविता बन गयी ...



लिख रहा है कहीं कोई प्रेम- पत्र
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देवता विभोर अनिमेष ताक रहे
उत्सुक खुद पुष्पांजलि लिए
तृण-समान दबाये
मंत्रों -ऋचाओं को
ओष्ठों के किनारे

बहिश्त में अप्सरायें
नृत्य- गान को तत्पर

उत्सेकी पयोधि डपट कर उर्मियों का उत्पात
उत्तरंग आकुल हैं करने को पद - प्रक्षालन

मलयानिल लज्जित रोके गंध -प्रवाह
निर्वाक प्रतीत होती हैं वाचाल दिशाएं
किन्तु
म्लिष्टि वाणी कर रही जैसे
अहर्निश ऋचाओं का गान ...
ज्यूं कंठ साध रही कोकिला ...

नव कलिकाएँ झाँक रही
नव किसलय की ओट लिए
आगत को है मधुरिम वसंत
ताल सज रहे कमल खिले ...

दिग -दिगंत को साक्षी मान
अपनी समिधा आप बनाये
स्थिर चित्त
द्वेष -कलुष - मालिन्य मिटाने
कस्तूरी कपूर गंध उत्फुल्ल
मुक्ताभ आभा उद्भासित
सूर्य -आभा मलिन सम्मुख जिसके
चन्द्र -विभा सकुचित फेरती मुख

सिर झुकाये
कही कोई उन्मत्त बावला
लिख रहा है ....
किसी को प्रेम- पत्र ...!


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चित्र गूगल से साभार .....