मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

किसका कौन सहारा माँ .....

नव वर्ष की पूर्व संध्या में 
दो मंजिले नए पुते 
घर के एक कोने में 
कड़कड़ाती सर्दी   
हीटर से गर्म कमरों में 
केक , पेस्ट्री , मिठाई 
कभी गर्म प्याले कॉफी 
कभी ढल रहे ज़ाम!
खेलते -कूदते बच्चों से 
गुलज़ार घर में !

घर के ही एक कोने में  
विधवा वृद्धा माँ 
पका कर खाना 
नल के ठन्डे पानी से 
बरतन धो 
अभी निकली है 
अबोलेपन में 
गली के नुक्कड़ तक !

मिट्टी के चूल्हे पर 
फटे -पुराने कपड़ों में  
हाथ सेक लेने की मनुहार  करती 
नुक्कड़ पर ढाली  खटिया 
खानाबदोश परिवार 
चूल्हे पर सिकती रोटियां 
संग हाथ सेकती  वृद्धा माँ!!

माँ कहती है शब्दों में 
कट जाता है गरीबों का समय 
सहारा मिल जाता है इनको 
दो घडी बतिया लेने में !

रुक जाती है जुबान 
मन  में कहते 
कहाँ बैठी हो माँ  !!
बेटी पढ़ती है
आँखों की भाषा 
किसका  कौन सहारा माँ !




नोट -चित्र गूगल से साभार लिया गया है।  आपत्ति होने पर हटा दिया जाएगा !

शनिवार, 30 नवंबर 2013

लिख दिया उसने उसका नाम जिंदगी .....

लिख दिया उसने उसका नाम " जिंदगी " 
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ख़्वाबों में ही सही सुनहरे हर्फ़ से लिखे 
खूबसूरत
 अफसाने 
हकीकत
 की जमीन पर सर पटकते रहे !

समंदर की रेत पर
सीपियों से बनायेखूबसूरत चित्र 
लहरों
 की तानशाही पर भटकते रहे !

वह शरारती बच्चे की मानिंद 
भाग्य
 के इरेजर से 
कर्मों
 की हर तहरीर को झुठलाता 
उसका
 लिखा हर हर्फ़ मिटाता गया !

झुंझलाकर तोड़ दी 
उसने
 सारी कलमें 
बिखेर
 दी सब स्याही 
मिटा
 डाले सुन्दर चित्र
लो....खुद ही लिख लो ... 
जो
 लिखना है तुम्हे 
बना
 लो जो चित्र बनता है तुमसे ... 
बच्चे
 की शरारतों का जवाब क्या हो सकता था !!

रोककर सारी शैतानियाँकलम फंसा दी अँगुलियों में .... 
आँखों
 में झांककर मुस्कुराता
हाथ पकड़कर उसने 
लिख
वा दिया उससे उसका नाम जिंदगी 

वह मुस्कुरा उठी ....
बिखरे सारे रंगों को समेटा

जीवंत हो गए उसके बनाये चित्र
 रख दिया उसने उनका नाम  जिंदगी 

फिर उसने जब भी लिखा जिंदगी 
बन गया हर गीत उसका जिंदगी 





रविवार, 4 अगस्त 2013

तुम्हारी मुक्ति ही उनकी आजादी है !!




समूह में घिरी हुई तुम 
दिख जाती हो अक्सर 
बेरंग बदरंग चेहरे 
तुमसे चिपटते , बलैया लेते 
एक दूसरे की बहन बनाते 
तुम्हे बोल्ड और ईमानदारी का तमगा पकड़ाते 
जिनकी आँखों की बेईमानी 
साफ़ नजर आती है.
तुम्हे नजर नहीं आता या 
झूठे तमगों की  सुनहरी रौशनी में 
अपनी गर्दन ऊँची कर तुम 
गटक जाती हो 
अपनी सब निराशाओं को 
नाकामियों को … 

या कि 
कंटीली झाड़ियों के दुष्कर पथ पर 
अपने क़दमों के निशा रखती हो 
पीछे चले आने वाले 
नन्हे क़दमों को संबल देते  
जो तुमसा होना चाहते हैं 
तुम हो जाना चाहते हैं !!
अपनी मुक्ति का जयघोष करते 
इन्द्रधनुषी रंगों की सतरंगी आभा 
भली लगती है तुम्हारे चेहरे पर 
तुम्हारी आँखों में 
मगर 
क्या समझना है तुम्हे 
मुक्त किससे होना है तुम्हे 
मुक्ति का मार्ग बताने वाले 
मुक्ति के गूंजा देने वाले नारों के बीच 
चुप रह जाने वालों की भाषा 
तुम समझोगी  नहीं 
कुछ घुटी -घुटी चीखें 
सूनी आँखों से बताती है 
तुम्हारी मुक्ति ही उनकी आजादी है !!

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

घोंघा- सी होती जाती हैं स्त्रियाँ ....



कठोर आवरण की ओट में 
नन्हे नाजुक कदम बढ़ाते देख 
घोघा बसंत कह  
हंसने वालों का साथ देते 
कई बार आत्मग्लानि में 
सिहरा मन 
जाने कितनी धूप 
कितनी बारिश 
कितनी सर्दी 
झेलकर पाई होगी यह कठोरता 
जैसे कि कर्कशा स्त्रियाँ! 

जरा सी आहट पर 
सिकोड़ कर कदम  अपने  
घुस जाते हैं खोल में 
खोल कर एक सिरा 
हलके से परे झांकते 
जाने कितने भय रहे होंगे 
जैसे कि भयभीत स्त्रियाँ !

होती हैं एक दूसरे  से विपरीत 
भयभीत और कर्कशा स्त्रियाँ !
मगर फिर भी कितनी एक -सी 
घोंघा -सी ही होती जाती हैं स्त्रियाँ  !!




नोट -गद्य कह पढ़ ले या कहें कविता , आपकी मर्जी !!

सोमवार, 6 मई 2013

जो होता है वह नजर आ ही जाता है...



जो होता है वह नजर आ ही जाता है
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सूरज अपने प्रकाश का विज्ञापन नहीं देता
चन्द्रमा के पास भी चांदनी का प्रमाणपत्र नहीं होता!

बादल कुछ पल, कुछ घंटे , कुछ दिन  ही
ढक सकते हैं ,रोक सकते हैं
प्रकाश को , चांदनी को ...

बादल के छंटते ही नजर आ जाते हैं
अपनी पूर्ण आभा के साथ पूर्ववत!

टिमटिमाते तारे भी कम नहीं जगमगाते
गहन अँधेरे में जुगनू की चमक भी कहाँ छिपती है!

जो होता है वह नजर आ ही जाता है देर -सवेर
बदनियती की परते  उतरते ही ! 
(या मुखौटों के खोल उतरते ही !!)

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

मुझमे मेरा विश्वास...


जीवन  की उबड़ खाबड़ पगडण्डी पर चलते हुए कई बार राह बहुत कठिन हो जाती है ...
पथरीली राहें पैरो को लहू लुहान कर जाती है ... राह के कांटे भी गहरी टीस दे जाते हैं ....
मगर आपका स्वयं  पर विश्वास हो तो राह के कंटीले पंथ ख़ुद आपका रास्ता छोड़ कर खड़े हो जाते हैं....



रूखे सूखे थे होंठ कभी
बिखरे भी हुए रहते थे बाल
विदीर्ण हुआ था ह्रदय कभी 
ना सध पाती थी चाल

ख़त्म होने को लगती थी 
जीवन की हर आस
मगर नही टूटा जो वह  था
मुझमे मेरा विश्वास

अपनों ने फेरी थी नजरें 
गैरों के भी थे व्यंग्य बाण
हर अंगुली उठ जाती थी 
कम करने को आन औ मान

घिरते थे संशय के बादल 
शाम रहती  थी उदास
मगर नही टूटा जो वह  था 
मुझमे मेरा विश्वास

मुश्किल लगती थी हर डगर
 पलकों पर अटके थे मोती
कम होती मुखड़े पर रौनक 
उम्मीदों की बुझती ज्योति

ख़त्म होने को लगता था 
जीवन का यह मधुमास
मगर नही टूटा जो वह था 
मुझमे मेरा विश्वास...


चित्र गूगल से साभार 

रविवार, 24 मार्च 2013

क्या ईश्वर का उद्देश्य भिन्न था .....






ईश्वर ने रचे रात्रि दिवस 
संग अनादि दृश्य प्रपंच था !
ब्रह्माण्ड आच्छादित चन्द्र सूर्य 
तारक समूह नभ आलोकित था !!
   
बाग़ बगीचे , झरने कलकल  
पहाड़ नदियाँ  थार मरुस्थल !
वसुधा के आँचल पर काढ़े  
वनस्पतियों का विस्तार सघन था !!

बसंत नव पल्लव शरद शिशिर  
पतझड़ पीला पात मर्मर  था ! 
ग्रीष्म  आतप  दग्ध था भीषण  
रिमझिम पावस जलतरंग था !!

मधुर  मदालापी मीन मधुप 
खग- मृग  कलरव किलोल था !
चातक  चकोर सुक खंजन 
नील सरोवर उत्पल व्याकुल था !!

मुग्ध दृष्टि  सृष्टि पर रचता 
ह्रदय शिरा मस्तिष्क  संचित था! 
प्रथम स्त्री रची शतरूपा
प्रथम पुरुष स्वायंभुव मनु था !!


प्रेम न उपजे पण तो यह था  
किन्तु  यह न्यायोचित न था ! 
पवन वेग से अग्नि शिखा  का 
वन में दावानल घटना था !! 

ईश्वर ने रची  रचना  भिन्न थी 
उस पर प्रेषित निर्देश भिन्न था! 
कहत नटत रीझत खीझत सा 
क्या ईश्वर  का उद्देश्य भिन्न था !!





चित्र गूगल से साभार ....

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

शब्द हो गए हैं इन दिनों सर चढ़े




शब्द हो गए हैं इन दिनों सर चढ़े 
करके मेरी पुकार अनसुनी 
बैठ जाते है अलाव तापने 
कभी दुबके रजाई में 
मोज़े मफलर शॉल लपेटे 
खदबदाती राबड़ी में जा छिपते हैं 
करते आँख मिचौली 
ऐसे नहीं सुनने वाले है ये ढीठ शब्द 
कभी  बैठते हैं छत से जा चिपके 
यहाँ- वहां से इकठ्ठा करूँ 
बैठा दूं करीने से 
पुचकारू   प्यार से 
हौले से थपकी दे संभालूं 
या कान उमेठ समझा दूं 
सर्दी के छोटे दिनों में 
टुकड़े -टुकड़े दिन सँभालते 
एक पूरा दिन इतना तो मिले !!