मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

मेरे तुम्हारे बीच का मौन ........





खांस -खांस कर दुखती
बेदम
अंतड़ियों
ऐंठती नसों के दबाव से
कमजोर
हड्डियों के बीच
लरजता
गुलाबी -सा दिल

रक्त सनी शेल्ष्मा की कतरनें
फैलती पुतलियों के गोलकों के बीच
हांफती रहेंगी साँसें ,
जंग
खाते घुटने
भूल
जायेंगे चलना -फिरना
धुंधलाने
लगेगी निगाहें

तब तक तो लौट ही आओगे
लौटा
ले जाने
अपने
दिए वो सारे शब्द
निष्प्राण
हथेलियों से
जो
झरते रहेंगे
बनकर तुम्हारा ही मौन ...

ठहरी
आँखों में
ठहरा
रहेगा विश्वास
सृष्टि
के अनंत व्योम में
सात्विक
अनुराग से स्पंदित
नाद
बन कर
गूंजता
रहेगा
मेरे तुम्हारे बीच का मौन ....




आज की कविता लिखवा ली रश्मि की पोस्ट
आई एम स्टील वेटिंग फॉर यू , शची ने

चित्र गूगल से साभार ...




शनिवार, 17 अप्रैल 2010

बाजी -दर -बाजी चल रहा है चाल कोई......






बाजी -दर -बाजी
चल रहा है चाल कोई
गोटियाँ बैठाता
इधर से उधर कोई ...

उन्माद का मारा
भय फैलाता
दवा के भ्रम में
दर्द बांटता कोई ....

दर्प में अपने
इंसान को बनाता मोहरा
कठपुतलिया
नचाता कोई ....

कैसे भूल जाता है
उस नियंता को
कि नचा रहा है
अपनी अँगुलियों पर वही ....

ईश्वर , खुदा , जीसस
नहीं मानते होगे
कैसे भूल सकता है
प्रकृति को कोई ...

सुनामी ने कितने डुबोये
उड़ा ले गए कितने तूफ़ान
धरती हिल कर जज्ब कर गयी
कितने ये ना पूछे कोई ...

कब तक खुश होते रहेंगे
बिसाते बिछाने वाले
जान ले कि प्रकृति भी
चल रही चाल कोई

देर -सवेर उसकी जद में
आने वाले सभी
किसी का वक़्त अभी हुआ
किसी का कभी

उस एक नियंता के आगे
टिक सका कब है कोई ...

छोड़ अपनी चिंताएं उस पर
चुन कर सत्य पथ
चल पड़ निडर प्राणी
जो होई सो होई ...




चिंताएं से प्रेरित
इस कविता को पढ़ते हुए जो विचार आये ...सीधे -सीधे लिख दिया ...

चित्र गूगल से साभार ...




शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

कहीं यादों की परतें खुलने लगी हैं.....





माथे
पर चढ़ गयी है त्योरियां
खून उतर आया है आंखों में
तमतमा गए है चेहरे कई
भींच गयी हैं मुट्ठियाँ

तीखी हो गयी है जबान की धार भी
सज गए है चाकू छुरियां
संभाल लिए है भाले बर्छियां
चढ़ गए कांधे पर तीर कमान

म्यान से निकल पड़ी है तलवारें
ढाल की आड़ लिए पहन लिए है बख्तरबंद
तेल पिला दी गयी हैं सभी लाठियाँ
दुनाली का रुख भी है अब इसी तरफ़

कहीं यादों की परतें खुलने लगी हैं
जख्मों की सीवन उधड़ने लगी है ......



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बुधवार, 14 अप्रैल 2010

जब चेतना किसी परिस्थिति विशेष के केन्द्र में स्वयं को रखकर देखती है तो दुसरे का दारुण दुःख भी स्वयं का ही हो जाता है ...ह्रदय की अनंत गहराइयों से निकले उदगार जब बोलों की शक्ल ले लेते हैं...कविता बन जाती है ...

आभार प्रेम का मनाती कैसे .....

आलेख प्रेम का लिखा हो
बारूद की कलम से
किस्मत के हाथों उसे
बंचवाती कैसे !

तुम ही कहो ...
आभार प्रेम का मनाती कैसे !!

कंटीली पथरीली राहों पर
लहूलुहान कदमों से भी
चल पड़ती साथ
लाशों की नींव ...
बेजुबान आहों की कंक्रीट ..
भय से निर्मित डगर पर
कदम बढाती कैसे !

तुम ही कहो ...
आभार प्रेम का मनाती कैसे !!

मेहनतकश हाथो के छालो से
लहू भरी गुलाबी हथेलिओं को
थाम भी लेती..
बेगुनाह मासूमों के
रक्त सने हाथों में
मेहंदी भरे हाथ
थमाती कैसे !!

तुम ही कहो ...
आभार प्रेम का मनाती कैसे !!

किसी मासूम को कर दिया
अनाथ तुमने...
कभी तुमसे भी छिना था
बचपन किसीने
यह कह देने भर से तो
गुनाह तुम्हारा कम ना होगा
खुदा के घर जवाब
तुम्हे भी तो देना ही होगा

जो भर लाई थी प्रेमाश्रु ...
ह्रदय की अथाह गहराइयों से
खींच कर ...
बेगुनाह आहों से श्रापित ह्रदय पर
अर्ध्य चढाती कैसे !

तुम ही कहो ...
आभार प्रेम का मनाती कैसे !!

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रविवार, 11 अप्रैल 2010

जिंदगी मुझसे यूँ मिली ......
















जिंदगी बस उस दम ही लगी भली
जब मैं जिंदगी से मैं बन कर ही मिली

पसरा रहा दरमियाँ खुला आसमां
संकरी लगने लगी रिश्तों की गली

जज्बातों ने ले ली फिर अंगड़ाई
अरमानों की खिलती रही कली

पलकों की सीप में अटके से मोती
राह आने की तकती रही उसकी गली

दामन खींचती हवा चुपके से पूछ रही
आज किसकी है कमी तुझको खली

जिन्दगी पहले तो नही थी इतनी हसीं
आती जाती रही लबों पर जो इतनी हँसी

तुझसे मिलकर ही जाना जिन्दगी
तू है वही जो ख्वाब बनकर आँखों में पली

जिंदगी पहले कभी ना लगी इतनी भली
जब तलक उससे मैं मैं बनकर ना मिली

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शनिवार, 10 अप्रैल 2010

मैं कण-कण में ढाल रही अलि आँसू के मिस प्यार किसी का....

जाने क्यों कहता है कोई,

मैं तम की उलझन में खोई,

धूममयी वीथी-वीथी में,

लुक-छिप कर विद्युत् सी रोई;

मैं कण-कण में ढाल रही अलि आँसू के मिस प्यार किसी का!


रज में शूलों का मृदु चुम्बन,

नभ में मेघों का आमंत्रण,

आज प्रलय का सिन्धु कर रहा

मेरी कम्पन का अभिनन्दन!

लाया झंझा-दूत सुरभिमय साँसों का उपहार किसी का!


पुतली ने आकाश चुराया,

उर विद्युत्-लोक छिपाया,

अंगराग सी है अंगों में

सीमाहीन उसी की छाया!

अपने तन पर भासा है अलि जाने क्यों श्रृंगार किसी का!

- महादेवी वर्मा

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

मेरा गीत .....(सुभद्रा कुमारी चौहान की रचना )

जब अंतस्तल रोता है,
कैसे कुछ तुम्हें सुनाऊँ?
इन टूटे से तारों पर,
मैं कौन तराना गाऊँ??

सुन लो संगीत सलोने,
मेरे हिय की धड़कन में।
कितना मधु-मिश्रित रस है,
देखो मेरी तड़पन में॥

यदि एक बार सुन लोगे,
तुम मेरा करुण तराना।
हे रसिक! सुनोगे कैसे?
फिर और किसी का गाना॥

कितना उन्माद भरा है,
कितना सुख इस रोने में?
उनकी तस्वीर छिपी है,
अंतस्तल के कोने में॥

मैं आँसू की जयमाला,
प्रतिपल उनको पहनाती।
जपती हूँ नाम निरंतर,
रोती हूँ अथवा गाती॥