शनिवार, 10 अप्रैल 2010

मैं कण-कण में ढाल रही अलि आँसू के मिस प्यार किसी का....

जाने क्यों कहता है कोई,

मैं तम की उलझन में खोई,

धूममयी वीथी-वीथी में,

लुक-छिप कर विद्युत् सी रोई;

मैं कण-कण में ढाल रही अलि आँसू के मिस प्यार किसी का!


रज में शूलों का मृदु चुम्बन,

नभ में मेघों का आमंत्रण,

आज प्रलय का सिन्धु कर रहा

मेरी कम्पन का अभिनन्दन!

लाया झंझा-दूत सुरभिमय साँसों का उपहार किसी का!


पुतली ने आकाश चुराया,

उर विद्युत्-लोक छिपाया,

अंगराग सी है अंगों में

सीमाहीन उसी की छाया!

अपने तन पर भासा है अलि जाने क्यों श्रृंगार किसी का!

- महादेवी वर्मा

3 टिप्‍पणियां:

  1. महादेवी जी की ,.इतनी सुन्दर कविता को पढवाने का बहुत बहुत आभार

    जवाब देंहटाएं
  2. महादेवी की इस प्रसिद्ध कविता की प्रस्तुति का आभार ।

    जवाब देंहटाएं