मंगलवार, 25 मई 2010

दोस्त बनकर गले लगाता है वही पीठ पर खंजर भी लगाता है वही....

दोस्त बनकर गले लगाता है वही
पीठ पर खंजर भी लगाता है वही....

वफा की जो रोज़ कसमें खाता है
करवटों संग बदल जाता है वही.....


बंद पलकों में हैं ख्‍वाब जिसके सजे
खुले आम लूट ले जाता है वही.....

तोड़ गया है जो इक रिश्‍ते की गिरह
आह किस अदा से मुस्कुराता है वही....

बेवफाई से उसकी अनजान नहीं हरगिज़
मगर यह रस्म भी तो निभाता है वही ....

मुतमईन ना कैसे हो अंदाज- - गुफ्तगू से
झूठ पर सच का लिबास चढ़ाता है वही ....

लबों पर जिसके उदास मुस्कराहट तक मंजूर नहीं
झूठी सिसकियाँ लेकर जार- ज़ार रुलाता है वही ....

साए में जिसके हमें महफूज़ समझता है ये जहाँ
हर सुकून हमारा दिल से मिटाता भी है वही

मेरे लफ़्ज़ों से शिकायत बहुत है जिसको
अपने गीतों में उन्हें सजाता भी तो है वही ....


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पुनः प्रकाशित



बुधवार, 19 मई 2010

यूँ ही ....कल्पना ही सही .....




यूँ जुड़े हैं तुझसे
मेरे दिल के तार
बेतार
कि मैं ख़ुद हैरान हूँ

जख्म रिसता तेरा वहां है
दर्द होता मुझे यहाँ है
सोचती थी तन्हाई में अक्सर
कौन है जो
हर पल साया सा साथ चलता है

मेरी हँसी में मुस्कुराता है
मेरे ग़म में आंसू बहाता है
सख्त जमीन पर कड़ी धूप में
गुलशन सजाता है
मुट्ठी से फिसलती रेत के ढेर पर भी
आशिआं बनाता है
लडखडाते हैं जब चलते रुकते कदम
अपनी अंगुली बढाता है
नीम बेहोशी में अक्सर
अक्स जिसका नजर आता है.....

सोचती थी अक्सर यूँ भी
मेरा साया वो
कहीं मैं ख़ुद तो नही
या फिर कही
मेरी कोई
कल्पना तो नही .......

तुझसे जो मिले ख्वाब में जिंदगी
तो जाना
मोड़ कर हर राह
जिस तरफ़ नदी सी बही
तू है वही
कल्पना ही सही .......




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पुनः प्रकाशित

चित्र गूगल से साभार

रविवार, 16 मई 2010

उसकी कविता .....मेरी कविता




शब्द -शब्द लड़ पिरोई
एक घटी ना बढ़ी कोई
अभिधा लक्षणा जतन सजाये
अलंकार वसन सुसज्जित
साहित्य सिरमौर हुई
करीने से सजी ताक पर
शीशे के पार झांकती
माथे पर बल डाले
सोचते विचारते
चिंतन मुद्रा में
अनेकानेक अर्थ तलाशते
पढ़ी जायेगी
उसकी कविता .....

अनगढ़ शब्दों में बंधी
खेतों की मुंडेरों पर
सौंधी मिट्टी की खुशबू पगी
मसालों की गंध रची
चूल्हे की आंच सिकी
श्रम स्वेद से नहाई
पोखर किनारे
वस्त्र सुखाते
धूले पुते आँगन में
अल्पना सजाते
गजरा लगाते
मेहँदी रचाते
महावर घुलाते
महकते गमकते
गुनगुनायेंगी सखियाँ
मेरी कविता ....


शनिवार, 8 मई 2010

मैं और क्या कर सकती हूँ मां ....





माँ ...
मैं झूठ नहीं बोलती
सच ही कहती हूँ
जब देखती हूँ तुम्हारी आँखों में
तुम्हारे चेहरे को
तुम कही नजर नहीं आती मुझे
नजर आता है
सिर्फ
पिता का चेहरा ...

तुम्हारी सूनी मांग
सूना ललाट
बुझी वीरान आँखें
उदास मुस्कराहट
इन सबमे
नजर आता है मुझे
सिर्फ पिता का चेहरा ....

देखती रही तुम्हे ताउम्र
थर -थर कांपते
पिता से
पिता के पिता से
पिता के पुत्र से
मगर तब भी
तुम्हारे चेहरे पर
ऐसा रूखापन
कभी नहीं पाया ...

कई बार सोचती हूँ
क्या यह थी
पिता के होने
और उनके कमाए
धन की ही माया ....
गहन उदासी के
क्षणों में भी
तुम्हारे चेहरे पर
नहीं रही कभी
ग़मों की छाया ....

पिता के जाते ही
जैसे - जैसे कम होता गया
उनका संचित धन
उसी शीघ्रता से कम हुई
तुम्हारे चेहरे की रौनक
तुम्हरे चेहरे पर
कितनी जल्दी
उतर आया बुढ़ापा ....

मगर ...
आज कल
जब भी निहारती हूँ
पिता की तस्वीर
रुंधे गले
आंसू भरी
धुंधलाई आँखों में
तस्वीर भी धुंधला जाती है
तुम उसमे से झाँकने लगती हो मां ...
और मैं
घबरा कर
आँखें बंद कर लेती हूँ ....

मैं और क्या कर सकती हूँ मां ....




चित्र गूगल से साभार .....


बुधवार, 5 मई 2010

प्रेम आखिर पलता कहाँ है ....




प्रेम आखिर पलता कहाँ है ...

किसी मृगनयनी के आंसुओं में ...

रक्तरंजित कलाई पर गुदे हुए आशिक के नाम में ....

हृदयपटल में अवस्थित खामोश तस्वीर में ...

संतति के लिए नैसर्गिक आत्मसमर्पण में ...

अपना लेने के आकर्षण में ...

सिर्फ अधिकार जताने में

या ...

स्वतंत्र कर तो दिया तुम्हे ...

मगर ...लौट आओगे ...
यह विश्वास जताने में ...

प्रेम आखिर पलता कहाँ है ....






चित्र गूगल से साभार ..

रविवार, 2 मई 2010

जा कर दिया आज़ाद तुझे मैंने ......








जा कर दिया आज़ाद तुझको दिल की गहराईओं से
ना माने तो पूछ लेना अपनी ही तन्हाईओं से

नहीं लायेगी बादे - सबा अब कोई पैगाम
ना करना कोई सवाल आती- जाती पुरवाईओं से

पीछे छोड़ आये कब के वो दरो -दीवार माज़ी की
चढ़ने लगे थे रंग जिनपर ज़माने की रुसवाईओं से

नजरे बचाए फिरते रहते थे उन गलियों चौबारों में
क्या अच्छा लगता था बचते फिरना अपनी ही परछाईओं से

टीसते हैं जख्म गहरे इस कदर बेवफाईओं के
भरते नहीं हैं अब किसी बावफा की भी लुनाईयों से




चित्र गूगल से साभार ...