रविवार, 29 जनवरी 2012

वसंत का स्वप्न








कोयल कुहुक मधुर कानों में
पवन छेड़े आँचल लहराए
कहीं लबों पर दहके पलाश
कही मन आलापिनी ना हो जाए !

सूरज महुए -सा महका है
धरा पीले आँचल शरमाये
नीले बादल ओस झर रही
कहीं मन हरी दूब ना हो जाए!

कहीं कुसुमित कानन नयनों में
मन कहीं तितली बन जाए !
पल्लवित वृक्ष सा मौन आमंत्रण
कहीं मन वल्लरी ना हो जाए !

कही ताल सज रही कुमुदनी
कही मन भ्रमर बन जाए
कहीं मन है सुरभित वृन्दावन
कही मन गोपी ना हो जाए!

कहीं हिलोरे लेता समन्दर
बिखरे गेसू सा काँधे पर
भेद कर विस्तृत शिलाएं
मन सरिता बन ना बह जाए!

नैन ना खोले रैन सुनहरी
धवल ओट पलके झपकाए
यह वसंत का स्वप्न कहीं है
वसंत कहीं स्वप्न ना हो जाए!