शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

झूठे शब्दों की विवशता ....




तुम्हारे शब्दों में जब 
प्रतिध्वनित होता है झूठ 
तुम्हारे ही 
शब्दों की ओट में !

सच्चे दिखते शब्दों के झूठ को पढ़कर 
सोचने लगती हूँ मैं 
तुम्हारे झूठे शब्दों की विवशता !!

झूठ समझते हुए भी 
सिर हिलाती हूँ 
सच की तरह !
सच के इशारे में !!

अस्पष्ट बुदबुदाते शब्दों में 
तुम भी समझ जाते होगे न 
विवशता 
मेरे झूठे शब्दों की !!

मंगलवार, 2 सितंबर 2014

कविता गुलाब के होने से है कि .....



गुलाब 
यूँ ही नहीं उग जाते होंगे !
काँटों से बिंधे हुए  हुए 
कुछ  हाथ 
खुरपी की मार से 
गांठें जिन पर!
  
गोबर और मिली जुली पत्तियों की सड़ांध 
कुछ बदबूदार रसायन 
नथुने में भर रही जिनके 
कपड़ों में उनके रचती होगी दुर्गन्ध 
वही हाथ उगाते होंगे   
खुशबूदार गुलाब! 

पत्तियां बिखरने तक निहारते 
हथेलियों की खुशबू में डूब कर 
सोच में रहती  हूँ अक्सर ...

कविता गुलाब के होने से है! 
कि  
गुलाब खिलता है कविता से !

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

चुभती है आँखों में बहुत हंसती हुई सी लड़कियां ....


चुभती है आँखों में बहुत 
हंसने वाली लड़कियां 
खुश होती गुनगुनाती लड़कियां !

हँसते हँसते एक दूसरे पर गिरती 
दोहरी हुई ठहाकों से 
पेट पकड़कर 
लोटपोट सी होती लड़कियां !!

जब
अपनी ही आंत से रची
कृति पर मुग्ध परमात्मा
उनकी हंसी में शामिल
खुश हो लेता है भरपूर !!


तब उसकी ही बनाई कुछ रचनाएँ
आँखों में खून लिए
ह्रदय की जलन से दग्ध
उबलते
उगलती हैं
लावा , मिटटी और धुआं !!

बुधवार, 9 जुलाई 2014

प्रेम होने में जो है ....


प्रेम होने में जो है , 
शब्दों में कहीं अधिक है !
शब्दों से कहीं अधिक है !!
जरुरी है प्रेम का होना , 
शब्दों के सिवा ही !
शब्दों के सिवा भी !
(एक दिन कविता की यह शाख सूख जायेगी )
प्रेम शब्दों से फिसलकर 
रिश्तों में साकार होगा 
या कि 
पतझड़ के सूखे पातों-सा 
बिखर जाएगा .
होगा यह या वह 
इन शब्दों के परे 
इन शब्दों के इर्द गिर्द ही मगर !!


रविवार, 11 मई 2014

महज़ अपनी आजादी को जीते , करते हैं परिवारों की बाते !


  • मेरे घर में नहीं है 
  • सिर्फ मेरी किताबों से भरी 
  • बड़ी आलमारियां !
  • मेरी आलमारी भरी है 
  • मेरी कुछ ही किताबोँ से  
  • कुछ में सजी है 
  • पति और बच्चों की क़िताबें  भीं !
  • कुछ आलमारियों मे 
  • गृहस्थी के जरुरी सामान  
  • राशन बर्तन भांडे कपड़े लत्ते  
  • कैंची सुई  धागा मशीन भी  !!

  • अतिथियों के  स्वागत सत्कार के साथ 
  • रखती हूँ दाना पानी 
  • चिड़िया, गाय  तो कभी कुत्ते के लिये भी !!
  • कभी किसी भूखे नंगे की गुहार सुन 
  • खाना- कपड़ा  देती हूँ  कुछ उपदेशों के साथ भी !
  • कभी पैसा- अनाज ले जाते हैं ढोल पिटते 
  • आशीषें बांटते लोग भी .... !!
  • अपने बच्चों की किलकारियां -झगडे भी 
  • द्वार पर अनाथ बच्चों की खिलखिलाहट 
  • रिरियाने की मजबूरी भी !

  •  पढ़ने से कुछ अधिक ही 
  • जीती हूँ रिश्तों को !
  • लड़ना , कुढ़ना , हँसना , प्रेम 
  •  नफरत  , उपेक्षा , चिढ़ना 
  • भी जिया है साथ ही .... !!
  • जो  जीती हूँ , 
  • जीते देखती हूँ 
  • वही लिखती भी हूँ !!
  • कभी इसके सिवा भी 
  • जो जीते देखना चाहती हूँ …… !!!
  • कभी कुछ लिखती हूँ जो जीती नहीं 
  • कभी कुछ जीती हूँ जो लिखती नहीं !!!
  •   
  • क्रांति की मोटी  पुस्तकों से सजी 
  • आलमारियों वाले घरों मे 
  • क्रांति के बड़े किस्से पढ़नें वाले 
  • गढ़ते है  झूठे किस्से ! 
  • एसी में बैठे ज़ाम  ढालते 
  • मुर्ग मुसल्लम , पकवानों  की दावत उड़ाते 
  • लिखते हैं शोषित , गरीब , भूखों की बाते! 
  • महज़  अपनी आजादी को जीते 
  • करते हैं परिवारों की बाते !  
  • अक्सर  लिखते हैं , जो जीते नहीं 
  • अक्सर जो जीते हैं  , लिखते नहीं !!
  •   
  • -एक गृहिणी के दिल से,  कुछ अव्यवस्थित विचार , शायद कभी श्रेष्ठ कविता मे भी ढलें !! 
  • आलेख समझो कि  कविता , पढ़ने वाले (पाठक ) की समझ !!

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

प्रेम , बर्फ , रिश्ते बदलते ही हैं समय के साथ …


प्रेम  भरा रहा  भीतर है
 जमी बर्फ -सा
पिघल जाएगा  अहसास  पाकर ही
 नदी -सा
सोचा होगा  भूल जाएंगे 
भूल भी रहे  हैं  … 
मगर,  नही भ्रम रहा था सब  
आज जब देखा  
देखा वह भी ख्वाब में
सीने में भर आया 
उबाल -सा
आँखों में उतर आया 
दरिया -सा
प्रेम भरा रहा  भीतर है  
जमी बर्फ सा
पिघल गया  अहसास पाकर ही 
नदी -सा!!
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बर्फ का होना रिश्तों में
स्वीकारा होगा  इस उम्मीद में 
पिघलेगी तो तर होंगे एहसास 
जज़्बात का समंदर ठाठे  मारेगा  
प्रेम  लहरों सा उछलेगा … 
मगर तब तक जाना नहीं होगा  
बर्फ पिघलेगी तो 
शेष कुछ न रहेगा !!
पिघली बर्फ की ठंडक में 
पहले सिकुड़ेगी रुमानियत 
धीरे  बढ़ता पानी होगा सैलाब 
बहा ले जाएगा अहसासों  की नरमी 
बतकही होंगी सुनामियां 
 भंवर में डूबेगा रिश्ता ! 
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बुधवार, 12 मार्च 2014

तुम्हारा आना वसंत हुआ मन जैसे पतझड़ में ...!

ऋण स्नेह का 
चुकाया साथ रह  
चुपचाप ही !

मन बंजर 
स्नेह वृष्टि से तर 
उर्वर हुआ !

तुम्हारा आना 
वसंत हुआ मन  
पतझड़ में !

इश्क हकीकी 
ना समझे है कभी 
इश्क मिजाजी !

आँखें मीचें क्यों 
भटकता है राही 
मन कस्तूरी  !

मौन की भाषा 
पढ़े न सब कोई 
मौन ही जाने !

नैनन देखे 
पिया ही  दिखे
झूठे दर्पण !

चढ़ते रहे 
उम्र की थी सीढियाँ 
जीवन भर !

रिश्तों की नमी 
स्वार्थ की तीखी धूप 
सुखा ही गई !

लफ्ज बेमानी 
ख़ामोशी कह जाती 
सारी कहानी !


मैं उदास हूँ
पढ़ा  उसने कैसे 
लिखे बिना ही !


हायकू वह विधा जहाँ पूरी बात 17 अक्षरों में कहनी हो।  सिर्फ 17 अक्षर जोड़ देने से बात नहीं बनती , कम शब्दों में गहरी बात निकले तो बात होती है।  
बंदिशों में लिखना थोडा मुश्किल है , कोशिश कर  देखा ! कैसा है प्रयास ?!!

शनिवार, 1 मार्च 2014

मेरे अच्छे समय के साथी!


मेरे अच्छे दिनों के साथी ,
बचा रखी है कुछ तुम्हारी कल्पनाएँ 
बुरे दिनों के लिए मैंने !
जब कभी बेचैनी में नींद न आये 
दुबक कर स्मृतियों की दोहर में 
लिपट सो रहती हूँ !

मेरे अच्छे समय के साथी! 
तुम्हारा हाथ थामे चलते 
इन पगडंडियों पर 
कुछ हसीं लम्हे चुरा कर रखती गयी हूँ
स्मृतियों की तिजोरी में !
उन दिनों के लिए
जब तुम साथ होकर भी साथ नहीं होते!!

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

तुम्हारे प्रेम में हूँ जिंदगी इन दिनों .....


किनारे झील के 
प्रत्युष  के है सतरंगी उजाले 
तुषारावृत श्रृंग से धीमे -धीमे 
रविकर झुका आता है रीझता 
सीली लजाती धरती  पर 
इन दिनों !

पीले गुलबूटे हरी किनारी 
बीच थरथराये पाटल अधर
प्रेमासिक्त नयन जल 
सिहरती है हौले सरसों 
इन दिनों! 

दिवस के मुखड़े पर 
आरक्त कपोल खिले कचनार 
पायल रुनझुन मंद बयार 
सरकाती घूंघट शोख दुपहरी 
इन दिनों !

छूकर लहर किनारा गुनगुन 
ह्रदय मधुर मुरली सितार  
गगन यवनिका सरकती धीमे 
निशा आँचल जड़े सितारे उतरती 
इन दिनों ! 

नेत्रों में भरकर 
अनिंद्य सुंदरी प्रकृति रूप 
मोहित मधुकर विहग कलरव 
गीत प्रेम के ही रच रहे मधुर   
इन दिनों !

द्रुत-रथ आरोहित समय भी
विस्मृत अपलक   
वसंत लीला स्पंदित हो 
थमा -सा रहने को  व्याकुल है थिरकता  
इन दिनों !

प्रेम विभोर मन ह्रदय तन 
अनहद नाद पुलकित नयन 
अतुलित वैभव भाव अनुभव    
वसंत रूप -लावण्य मेरे लिए ही धरता 
इन दिनों! 

और मैं …
सद्यस्नात सिहरती निरखती 
गुनगुनी धूप - सी बिखरी आँगन
पी रही प्रेम -चषक में जीवन -रस 
आकण्ठ तुम्हारे प्रेम में हूँ जिंदगी 
इन दिनों !!


( अद्भुत है प्रकृति , वसंत , जिंदगी , प्रेम।  जिसने सुना/ महसूसा  प्रकृति का अनहद नाद , प्रेम में डूबा रहा जीवन भर ! ) 

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

खामोशियों में है शोर इतना .... .....



चमचमाती फलैश लाईटें 
बना देती हैं चमकदार 
या चमकते ही है शोख -से चेहरे 
अमीरी, नाम , शोहरत  औ  रुतबे से !

चमक होती है डायमंड फेशियल की 
या परत दर परत चढ़े  मेकअप की 
या फिर ढक जाते है 
चेहरों की कालिमा 
मन के स्याह अँधेरे  
दनदनाते चमकते कैमरों में !!

जीवन से भरी नजर आती जिंदगानियां 
खिलखिलाती हैं बेतहाशा 
मंच  पर हाथ हिलाते 
शोर में डूबी रश्क करती 
तमाशबीन -सी नीचे खड़ी जिंदगानियां को 
उतना ही शोर  जिनके जीवन में भी !

कुछ पल के लिए 
महीने के खर्चों के शोर से निजात पाते 
इस शोर में खींचे  चले आते हैं। 
शोर मचाते ही जीते हैं , 
जीते जाते हैं 
मर जाते हैं 
खामोशियाँ इनको नसीब नहीं !!

मगर मंच पर
चमचमाते कैमरों में जगमगाती जिंदगानियां
मंच के पीछे  
ख़ामोशी में ही 
जीती हैं 
जीती जाती हैं 
मर जाती हैं 
शोर इनके नसीब में नहीं !! 



 चित्र गूगल से साभार !आपत्ति होने पर हटा दिया जायेगा !