सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

मैं ..मैं ..मैं ...

कई बार हास्य महज हंसने के लिए नहीं होता ...इसमें सहज सन्देश भी छिपा होता है ...अपने मैं को संतुष्ट करने के लिए हम क्या नहीं कहते , क्या नहीं करते ...जब अपने मुख से या किसी और के मुख से लगातार मैं -मैं सुनायी देता है तो एक उकताहट सी हो जाती है ....हम जो होते हैं उसे इतने विस्तार से क्या बयान करना है , वह नजर आ ही जाता है , दूर रहने वालों को कुछ देर मुखौटों से बहलाया जा सकता है , मगर करीब आकर साफ़ चेहरा नजर आ जाता है इस "मैं" का ...


मत पूछ मैं क्या हूँ
मैं ये हूँ , मैं वो हूँ ....

मैंने ये किया , मैंने वो किया
मैंने उसको रुलाया
मैंने उसको सताया
मुझसे वो यूँ प्रभावित हुआ
मैंने उसको यूँ हंसाया
मैं ये कर सकूँ मैं वो कर सकूँ
मैं क्या- क्या नहीं कर सकूँ

मैं... मैं ...मैं... मैं...

मन करता है कभी -कभी
इक मोटी जेवड़ी बाँध दूं
इस मैं के गले में
और रेवड़ के साथ खिना दूं
गड़ेरिये की लाठी की हांक पर
फिर मजे से करते रहियो
मैं ... मैं ...मैं ....मैं ...

---हास्य कविता

जेवड़ी -- रस्सी
खिना दूं --भेज दूं



जो होता है वह नजर आ ही जाता है
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सूरज
अपने प्रकाश का विज्ञापन नहीं देता
चन्द्रमा के पास भी चांदनी का प्रमाणपत्र नहीं होता

बादल कुछ पल, कुछ घंटे , कुछ दिन तक ही
ढक सकते हैं ,रोक सकते हैं
प्रकाश को , चांदनी को ...

बादल के छंटते ही नजर आ जाते हैं
अपनी पूर्ण आभा के साथ पूर्ववत

टिमटिमाते तारे भी कम नहीं जगमगाते
गहन अँधेरे में जुगनू की चमक भी कहाँ छिपती है

जो होता है वह नजर आ ही जाता है देर -सवेर
मुखौटों के खोल उतरते ही !


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