शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

शब्द हो गए हैं इन दिनों सर चढ़े




शब्द हो गए हैं इन दिनों सर चढ़े 
करके मेरी पुकार अनसुनी 
बैठ जाते है अलाव तापने 
कभी दुबके रजाई में 
मोज़े मफलर शॉल लपेटे 
खदबदाती राबड़ी में जा छिपते हैं 
करते आँख मिचौली 
ऐसे नहीं सुनने वाले है ये ढीठ शब्द 
कभी  बैठते हैं छत से जा चिपके 
यहाँ- वहां से इकठ्ठा करूँ 
बैठा दूं करीने से 
पुचकारू   प्यार से 
हौले से थपकी दे संभालूं 
या कान उमेठ समझा दूं 
सर्दी के छोटे दिनों में 
टुकड़े -टुकड़े दिन सँभालते 
एक पूरा दिन इतना तो मिले !!