कठोर आवरण की ओट में
नन्हे नाजुक कदम बढ़ाते देख
घोघा बसंत कह
हंसने वालों का साथ देते
कई बार आत्मग्लानि में
सिहरा मन
जाने कितनी धूप
कितनी बारिश
कितनी सर्दी
झेलकर पाई होगी यह कठोरता
जैसे कि कर्कशा स्त्रियाँ!
जरा सी आहट पर
सिकोड़ कर कदम अपने
घुस जाते हैं खोल में
खोल कर एक सिरा
हलके से परे झांकते
जाने कितने भय रहे होंगे
जैसे कि भयभीत स्त्रियाँ !
होती हैं एक दूसरे से विपरीत
भयभीत और कर्कशा स्त्रियाँ !
मगर फिर भी कितनी एक -सी
घोंघा -सी ही होती जाती हैं स्त्रियाँ !!
नोट -गद्य कह पढ़ ले या कहें कविता , आपकी मर्जी !!
विपरीत ... फिर भी कितनी एक सी ... देश-काल और परिस्थितियाँ अक्सर लोगों को ढालते हैं
जवाब देंहटाएंनारी सुलभ कोमलता पर गहन बात कहती बहुत सुंदर रचना वाणी जी ....स्त्री मन अंदर से कोमल ही होता है ....परिस्थितियाँ उसे भले ही बदल दें .....!!उसकी कोमलता बनी रहे ये हमारे घर ,परिवार और समाज का दायित्व है .....!!!
जवाब देंहटाएंस्त्रियों के कष्ट, शायद हम पुरुष कभी नहीं समझ पाते...
जवाब देंहटाएंबधाई बेहतरीन अभिव्यक्ति को !
उल्टा है.
जवाब देंहटाएंबाहर से कोमल, भीतर से मज़बूत ...
आपसे ज्यादा असहमत भी नहीं हूँ . स्त्रियाँ कोमल दिखती हैं मगर होती है मजबूत , मगर यहाँ कर्कशा और भयभीत स्त्रियों की बात है :)
हटाएंkajal jee ne sahi kaha... :)
हटाएंयदि हर पल आत्मसम्मान पर प्रहार होता रहे और उन्हें निरा बेवकूफ समझा जाता रहे तो तो वाणी में कड़वाहट आ ही जाती है और जब उन पर यह विश्वास ही न किया जाये कि यह स्वयं कुछ कर सकती हैं तो भयभीत भी नज़र आती हैं .... लेकिन वक़्त पड़ने पर ऐसी स्त्रियाँ भी अपने खोल से निकल कर मजबूती से परिस्थितियों का सामना करती दिखाई देती हैं ....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना ... नारी की विषम परिस्थितियों के भावों का सटीक विश्लेषण किया है ।
रहो सुरक्षित खोल में, डोल रही निश्चिन्त |
जवाब देंहटाएंखोल खोल के गर चले, दशा होय आचिन्त्य |
दशा होय आचिन्त्य, सोच टेढ़ी सामाजिक |
दिखे पुरुष वर्चस्व, घटे दुर्घटना आदिक |
नहीं बदलती सोच, आज तक रही प्रतीक्षित |
मत खोलो हे मातु, खोल में रहो सुरक्षित ||
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।। त्वरित टिप्पणियों का ब्लॉग ॥
जवाब देंहटाएंआभार !
हटाएंबहुत ही सुन्दर अभिवयक्ति...
जवाब देंहटाएंकुँवर जी,
गहरी बात ...... स्त्री जीवन का एक सच ये हैं ये भाव
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ..विषम परिस्थितियों में स्वयं को बचाने की कोशिश करनी ही पड़ती हैं ,,
जवाब देंहटाएंकर्कशा और भयभीत, विरोधाभास होते हुये भी आपकी बात सही है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
अच्छी कविता।
जवाब देंहटाएंजो भयभीत होता है वही एक आवरण ओढ़ लेता है क्रोध का, वही उसे शक्तिशाली होने का भ्रम देता है, वास्तविक बलशाली को क्रोध नहीं करना पड़ता, लेकिन बात यहाँ स्त्रियों की है जिन्हें हालात ऐसा बना देते हैं..मार्मिक कविता !
जवाब देंहटाएंकम शब्दों में बहुत ही सुंदर गहन भावभिव्यक्ति...यह भी एक भाव,एक रूप है स्त्री जीवन का जिसका कहीं न कहीं कभी न कभी हर स्त्री सामना करती है। फर्क सिर्फ इतना होता है कुछ पल पर के लिए इस परिस्थिति का सामना करती है तो कुछ को सारी ज़िंदगी ऐसे ही गुज़ारनी पड़ती है।
जवाब देंहटाएंबहुत मर्मस्पर्शी रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंकभी - कभी भयभीत स्त्रीयां ही कर्कशा भी हो जाती हैं
alag alag paristhityon men dhalti jaati hain striyaan.
जवाब देंहटाएंbehad sateek aur gambheer baat kahi hai.
सच.....
जवाब देंहटाएंहर हाल में जिए जाती हैं स्त्रियाँ...
बहुत सुन्दर!!!
अनु
रोचक तुलना, इतनी मन्द गति से कोई नारी नहीं चलती है।
जवाब देंहटाएंकहां होते हैं सब के पास ऐसे कवच?
जवाब देंहटाएंजो झेल जाती है लोगो के ताने और फर्क नहीं पड़ती जिसकी जन्दगी में खीज में लोग उन्हें ही कहते है कर्कशा स्त्रिया , और सब सह चुप रह खोल में घुसे रहने वाली को लोग सामने अच्छा और पीछे कहते है घोंघा बसंत स्त्रिया ।
जवाब देंहटाएंसचमुच स्त्रियों के दोनों ही रूप होते हैं, सामान्य नहीं रहने देती ये दुनिया..
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती,अभार।
जवाब देंहटाएंऔरतों में ये जो कुछ भी हो जाने की क्षमता होती है वही उन्हें सुदृढ़ भी बनाती है बहुत बेहतरीन लगा पढना !
जवाब देंहटाएंunique comparison!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना!
सार्थक ... कठोर पर फिर भी नाज़ुक .... सच में स्त्रियों का स्वभाव ऐसा ही है ... हर भंगिमा में बदलता हुआ ...
जवाब देंहटाएंस्त्री मन अनंत भाव लिए होता है
जवाब देंहटाएंसमाज के अनुकूल खुद को ढालना जानती हैं
सादर !
इसे घोंघे माँ मानवीकरण कहें या स्त्रियों का घौंघाकरण जो भी लिखा है बिंदास बेबाक यथार्थ लिखा है .
जवाब देंहटाएंॐ शान्ति .
:-)
हटाएंसही कहा है पर बिच्छु कब बनेगी स्त्रियाँ ? आज के इस युग में..
जवाब देंहटाएंस्त्रियाँ भी इंसान होती है लेकिन देखिये उसे डर इंसान का ही रहता है .जबकि दुसरे बहुधा जीव अपने स्वजातीय से दुर्व्यवहार नहीं करते ..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चिंतन परक रचना ..
In defense of the contorted ones!
जवाब देंहटाएंमरै बैल गरियार, मरै वह अड़ियल टट्टू।
जवाब देंहटाएंमरै करकसा नारि, मरै वह खसम निखट्टू
बाम्हन सो मरि जाय, हाथ लै मदिरा प्यावै।
पूत वही मर जाय, जो कुल में दाग़ लगावै
अरु बेनियाव राजा मरै, तबै नींद भर सोइए।
बैताल कहै विक्रम सुनौ, एते मरे न रोइए
-बैताल
हर व्यवहार का एक मनोविज्ञान होता है , मगर यह भी सच है, मनोविज्ञान की आड़ में व्यवहार भी होते हैं ...
हटाएंये सब ही मर जाते तो मनोवैज्ञानिक क्या करते , किसका इलाज़ करते :)
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (15.07.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी. कृपया पधारें .
जवाब देंहटाएंपीडा भरी तुलना!! शायद सबलता की ओर गति की तुलना भी !!
जवाब देंहटाएंsunder rchna
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरती से स्त्रिओं का चित्रण
जवाब देंहटाएंसही कहा है पर बिच्छु कब बनेगी स्त्रियाँ.बहुत बढ़िया .चिंतन परक रचना ..
जवाब देंहटाएंA thought provoking read.
जवाब देंहटाएंaapki bahut khubhsurat rachna se gujarna achchha laga,badhai.
जवाब देंहटाएंवाह... उम्दा अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंbahut accha.... sahi reflection..
जवाब देंहटाएंनारी मन बहुत कोमल होता है पर इनके मन की कठोरता
जवाब देंहटाएंभी कम नहीं होती
नये कलेवर की गहन अनुभूति
सादर
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी पधारें
केक्ट्स में तभी तो खिलेंगे--------
vaah bahot khub ...bahot umda hai waaah
जवाब देंहटाएंअच्छा विश्लेषण है पर कब.कहाँ क्या लागू हो कहना मुश्किल है;अंततः नारी भी एक व्यक्ति है !
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरती से अपने आवरण की कठोरता को कोमल बना दिया हमने सभी के लिए...कठोर ना हों तो क्या करें ...हमें हमारी मिलनसारिता के साथ लांक्षन भी गिफ्ट किये जाते हैं....
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