रूप का लोभी
रूप का प्यासा
रूप देख भरमाया
रूप ढला
जब आँख खुली
तन पिंजर ही पाया ...
रूप का प्यासा
रूप देख भरमाया
रूप ढला
जब आँख खुली
तन पिंजर ही पाया ...
पिछले दो दिनों से ये पंक्तियाँ दिमाग में घूम रही है ...इसे आगे लिख नहीं पा रही ...क्या आप मदद करेंगे ...!!
सब था छद्दम
जवाब देंहटाएंसब थी माया
सब धीरे धीरे छूट गया
साथ रही बस छायाँ
... आगे बाद में लिखने का प्रयास करूँगा
छायाँ का नहीं होता कोई रूप
जवाब देंहटाएंछायाँ से नहीं होता कोई कुरूप
अस्तित्वहीन है छायाँ भी न हो अगर ये धूप
.....
आपने अपनी इस कविता के लेबल में 'अधूरी कविता' लिखा है. मेरे खयाल से कविता कभी अधूरी नहीं होती. और फिर यह कविता तो अपने आप में सम्पूर्ण है ही.
जवाब देंहटाएंसुन्दर
यूँ तो आपकी रचना पूरी है - कम से कम मुझे नहीं लगती अधूरी है। लेकिन आपने जोड़ने के लिए कहा, तो आपके कविता के लिए आगे की पंक्तियाँ मेरी ओर से -
जवाब देंहटाएंइसीलिए तो सब कहते हैं
ब्रह्म सत्य जगत है माया
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
mt ro
जवाब देंहटाएंuth ab...
hua vhi
jo hona tha...
khoj swayam ko
chhod bhram ko...
....... aadi-aadi
पिंजर पिंड प्रकाशिया ...
जवाब देंहटाएंअधूरी कहाँ, इसके आगे तो पूरी यात्रा है आर्ये!
इसके आगे तो पूरी खोज है - सनातन सौन्दर्य की। सौन्दर्य तो देह में आधार पाता है। ...
आँख प्रकाश की माता है।
रूप का लोभी
जवाब देंहटाएंरूप का प्यासा
रूप देख भरमाया
रूप ढला
जब आँख खुली
तन पिंजर ही पाया ...
चंचल मन की दशा देखिये
इस योवन का नशा देखिये
रूप प्यास में
तृप्ति आस में
सुबह का भटका
शाम ढले जब घर आया....
तन पिंजर ही पाया ...
waah badhiya
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत पंक्तियाँ हैं ..... और गोदियाल जी ने बहुत खूबसूरती से आगे बढ़ाया है...
जवाब देंहटाएंजितना है बहुत अच्छा है बात आगे बढ़ाने की ज़रूरत ही क्या है :)
जवाब देंहटाएंथोड़ी तुकबंदी तो कर ही सकती हूँ...पर भाव अंदर से उमड़ने चाहिए तभी मन को छुएंगे...इसलिए औरों का लिखा पढ़कर ही आनंदित हो रही हूँ...यहाँ वैसे भी एक से एक बढ़कर कवि-मन के लोग हैं...फिर से आऊंगी और पढने....सुन्दर पंक्तियाँ हैं.
जवाब देंहटाएंरचना खुद पूरी करें -जहाँ तक है उम्दा है !
जवाब देंहटाएंसंगीता जी से सहमत हूँ , सच में गोदियाल साहब ने बहुत अच्छे तरीके से कविता को आगे बढाया है
जवाब देंहटाएंरश्मि प्रभा जी की मेल से प्राप्त टिप्पणी
जवाब देंहटाएंरूप का लोभी
रूप का प्यासा
रूप देख भरमाया
रूप ढला
जब आँख खुली
तन पिंजर ही पाया ...
कभी नहीं ये क्रम है बदला
ना ही कभी बदलेगा
कभी नहीं कोई सुन पायेगा
आत्मा की धुन
जिसका रूप है अक्षुण
लोभी क्या समझेगा इसको
रूप को क्या जानेगा
अपने हाथों मुक्त करो
अपने रूप की माया
पिंजर फिर न होगा साथ
आकाश चलेगा साथ साथ
......................................... थोडा अधूरा ही है
godiyal ji ne to gadar kat di aur fir sone pe suhaga aapki koshish. badhayi
जवाब देंहटाएंबहुत सही!
जवाब देंहटाएंआयना दिखाना भी जरूरी होता है!
Hi..
जवाब देंहटाएंRup ka lobhi, rup ka pyasa..
Rup dekh bharmaya..
Rup dhala, jab aankh khuli to,
tan pinjar hi paya..
Man ki chah agar wo rakhta..
Antarman main basta Wo..
Nashwar rup ki mrug trushna main..
Aise nahi bhatakta wo..
Pyaar aatmik jo wo karta..
Rup ki chahat Kyon wo rakhta..
Kanchan kaya tan ki aabha..
Dekh kabhi na tarasta wo..
Tan ke pinjar main jo rahta..
Usko na pahchan wo paya..
Dil ke badle dil ko chaha..
Par wo dil ko jaan na paya..
Nashwar es sansaar main sab kuchh..
Tan ka rup ya ujjwal kaya..
Kuchh din ka ye khel hai sara..
Lagta hai wo samajh na paaya..
Tabhi rup ko dekha usne..
Sundarta ko puja usne..
Man tak na wo pahunch hai paya..
Tan main usko dekha usne..
DEEPAK,
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जवाब देंहटाएंवैसे ये अधूरी क्यों लगी आपको ..मुझे तो सम्पूर्ण लग रही है ..गागर में सागर.
जवाब देंहटाएंशिखा जी से सहमत.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता है...
पुछल्ले जोडे पर खुद को जमे नही !
जवाब देंहटाएंपर
जवाब देंहटाएं'रूप'का वह रूप
आज भी
भुला न पाया.
वाणी जी ,
जवाब देंहटाएंमुझे गिरिजेश राव जी से बड़ी उम्मीदें थीं वे खिसक लिये ! मेरी कविता में दिलचस्पी नहीं है और ना ही यह कर्म मेरे वश का है ! आपकी कविता के भाव पकड़ कर पुछल्ला जोड़ने के मेरे नौसिखियापन पर हंसियेगा मत ! फिलहाल दो पुछल्लों का जुगाड़ किया है देखिये कोई एक जम जाए तो :)
(१)
रूपों का इतिहास
भूल थी
देहों का भूगोल
गलत था
सत्य जान बौराया
(२)
गुजरे क्षण सारी आशायें
रंगहीन
सब व्यर्थ हो गये
शब्दों के जो अर्थ गढ़े थे
कहीं खो गये
जीवन के नव अर्थ ऊपजे
रूप अलौकिक ध्याया