रविवार, 27 नवंबर 2011

लिख देना फिर कभी कोई प्रेम भरा गीत ....

बहुत दिनों से कोई कविता लिखी नहीं , कई बार यूँ ही खामोश रह जाना अच्छा लगता/रहता है ... जैसे समुद्र के किनारे बैठे लहरों को गिनते रहना चुपचाप , लहरों का तेजी से मचलकर आना और उतनी ही फुर्ती से उछलकर फिर से और दूर पीछे हट जाना देखते रहना चुपचाप ...कभी विचारों का प्रवाह भी समंदर की लहरों के जैसा ही होता है ..बहुत कुछ उमड़ता घुमड़ता रहता है और फिर उतनी ही तेजी से गायब ...पानी में या हवा में तैरते बुलबुले से, जैसे ही पकड़ने की कोशिश करो , गायब ...बहुत कुछ सोचना , विचारना, लिखने बैठो तो कलम चलने से इंकार कर देती है .. कब होता है ऐसा ...जब हम बहुत कुछ लिखना चाह्ते हैं , मगर लिखते नहीं ...क्यों??
पता नहीं ...या सब पता है ...

इस उलझन से झूलते- निकलते नया कुछ लिखा नहीं गया तो सोचा एक पुरानी अतुकांत कविता को तुक में लगाने की ही कोशिश कर ली जाये और इस ब्लॉग पर अपनी सभी कविताओं को सहेजने का क्रम भी बना रहे ......
कैसा है यह प्रयास ??

लिख देना फिर कोई प्रेम भरा गीत
अभी जरा अपना दामन सुलझा लो .
मचानों पर चढ़ा रखे हैं ख्वाब तुमने
अब जरा जमीन पर कदम तो टिका लो .
अंसुअन फुहार से सीला है आँचल
तन -मन जरा इसमें और भीगा लो .

लहूलुहान अँगुलियों में दर्द होगा ज्यादा
बिछाता है कौन काँटें नजर को हटा लो .
खींचे संग आते हैं जो दामन में कांटे
करीने से इनको झटक कर हटा लो .

दर्द की लहर रिस रहा जो लहू है
झीना ही सही इन पर परदा लगा लो .
चेहरे पर झलकें ना दर्दे निशानी
पहले जरा खुल कर मुस्कुरा लो.

और अब पहले लिखी गयी अतुकांत कविता ज्ञानवाणी से


लिख ही दूँगी फिर कोई प्रेम गीत
अभी जरा दामन सुलझा लूं ....

ख्वाब मचान चढ़े थे
कदम मगर जमीन पर ही तो थे
आसमान की झिरियों से झांकती थी
टिप - टिप बूँदें
भीगा मेरा तन मन
भीगा मेरा आँचल
पलट कर देखा एक बार
कुछ कांटे भी
लिपटे पड़े थे दामन से
खींचते चले आते थे
इससे पहले कि
दामन होता तार - तार
रुक कर
झुक कर
एक -एक
चुन कर
निकालती रही कांटे
जो लिपटे पड़े थे दामन से ..

लहुलुहान हुई अंगुलियाँ
दर्द तब ज्यादा ना था

देखा जब करीब से
कोई बेहद अपना था...
दर्द की एक तेज लहर उठी
और उठ कर छा गयी
झिरी और गहरी हुई
टिप - टिप रिस रहा लहू
दर्द बस वहीँ था ...
दिल पर अभी तक है
उसी कांटे का निशाँ
इससे पहले कि
चेहरे पर झलक आये
दर्द के निशाँ
फिर से मैं मुस्कुरा ही दूंगी

फिर से लिख ही दूंगी प्रेम गीत
अभी जरा दामन सुलझा लूँ ...


32 टिप्‍पणियां:

  1. लहरों का आना जाना और खामोश निगाहें ... खुद से खुद की बातें हों या लहरें कुछ कह जाएँ ... तभी तो लौटती रह्रों से आवाज़ आती है -
    इससे पहले कि
    दामन होता तार - तार
    रुक कर
    झुक कर
    एक -एक
    चुन कर
    निकालती रही कांटे
    जो लिपटे पड़े थे दामन से ..
    एक ख़ामोशी ... कितनी सारी स्याही मिटा जाती है , अपनी ही सोच सकारात्मक हो उठती है, दर्द मुस्कुराने लगता है-
    दिल पर अभी तक है
    उसी कांटे का निशाँ
    इससे पहले कि
    चेहरे पर झलक आये
    दर्द के निशाँ
    फिर से मैं मुस्कुरा ही दूंगी...

    ऐसे जिया जाता है ...

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  2. दर्द मुखर हो पर अपने ही घेरों में, घेरों के बाहर मुस्कान ही बिखरे।

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  3. ज़िन्दगी की रह पर चलते चलते जिन एहसासों से हम रूब रू होते हैं उनको आपने बहुत कोमलता से लिखा है जैसे मोम सा पिघलाव है इन पंक्तियों में ....!!
    बहुत अच्छा लगा ..कल और आज ...को पढना ...
    बधाई एवं शुभकामनायें....

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  4. जब हम मौन होते हैं, तो खुद से हमारी मुलाक़ात होती रहती है। जब हम खुद से मिलते हैं तो अच्छे विचारों का जन्म होता है ... क्योंकि तब हम मचानों पर अपने ख्वाब टांग कर नहीं रखते यथार्थ के धरातल पर आ जाते हैं।

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  5. दर्द से ऊबर कर गीत लिखने की उत्कंठा दोनों रचनाओं में मुखर है!

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  6. वाह! बहुत सुन्दर.
    कमाल की प्रस्तुति है आपकी.
    कविता पुरानी ही सहीं पर भाव विभोर
    कर रहीं हैं.नवीन आनंद का संचार हुआ जी.

    अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार.

    मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
    मेरी नई पोस्ट पर आपका स्वागत है.

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  7. दर्द की लहर रिस रहा जो लहू है
    झीना ही सही इन पर परदा लगा लो .
    चेहरे पर झलकें ना दर्दे निशानी
    पहले जरा खुल कर मुस्कुरा लो.

    दोनों रचनाएं बेहद प्रभावशाली और गहरे अर्थों का सम्प्रेषण करती हैं .....!

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  8. अपनी ही अतुकांत रचना को तुक में लिखने का प्रयास प्रशंसनीय है ..

    दर्द की लहर रिस रहा जो लहू है
    झीना ही सही इन पर परदा लगा लो .

    बहुत सुन्दर पंक्तियाँ ..

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  9. मेरी भी यह मानसिक स्थिति हो रही है, कुछ नया नहीं लिखा जा रहा है। कई बार मन करता है कि पुराना पिटारा खोलूं और पोस्‍ट पर डाल दूं। लेकिन वो भी मन नहीं कर रहा है। असल में ब्‍लाग जगत में राजनैतिक और धार्मिक बहसों से इतना मन उकता गया है कि लगता है क्‍या लिखा जाए जिससे लोग सामाजिक सरोकारों की ओर मुड़े। आपकी दोनों ही कविता श्रेष्‍ठ है।

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  10. ऐसा ही होता है विचारो का रेला लहरो की तरह आकर खो जाता है मगर उसमे भी आनन्द है……………कविता भी बहुत सुन्दर है।

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  11. विचारों को स्पन्दित करता कोमल चिंतन

    आभार

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  12. आपका यह प्रयास बढ़िया है... अतुकांत और तुकांत दो नो कविता बेहतरीन हैं...

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  13. Pretty! This was a really wonderful post. Thank you for your provided information….

    From everything is canvas

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  14. प्रिय वाणी जी बड़ा सुन्दर...प्यारी रचना ...दर्द के निशाँ
    फिर से मै मुस्कुरा ही दूँगी ....

    ..भ्रमर ५

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  15. बहुत खूबसूरत लिखा है आपने
    दर्द का सास्वत चित्रण किया है

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  16. Vani ji..

    Kavitaon ke prarambh main likhe shabd aise lage mano kisi ne mere antarman ko padh liya ho.. Kabhi shant main mukhar ho uthna,. Kabhi kolahal main shant..man ke vicharon ki lahron main kabhi chah kar ek pamkti nahi likhi jati, kabhi kisi diary ke pannon par ukeri gayi aadi tirchhi panktiyon ke beech koi geet, gazal ya nazm ko padh lagta hi nahi hai ki ye maine likha hai..kabhi dhoondhe bhi koi shabd nahi milte, kabhi shabd swatah mukhar ho uthte hain..

    Aapki dono kavitaon main bhav mukhar ho uthe hain..hamesha ki tarah..

    'sundar kavita' jo main likhta..
    To ye chhota laga hamen..
    Kavita par main kuchh likh paun..
    Shabd mujhe wo nahi mile..

    Shubhkamnayen..

    Saadar..
    Deepak Shukla..

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  17. लिखना ही है ऐसी भी क्या बाध्यता.. इंसान कोई फैक्टरी तो नहीं.. एक समय था कि जब मैं हफ्ते में दो पोस्टें लिखा करता था, अब महीने में भी दो हो जाएँ तो बहुत हैं... एक शिशु के जन्म में भी नौ माह का समय लगता है...
    खैर यह सब तो आपकी भूमिका के लिए थी... कविता के लिए तो मैं स्पष्ट कहूँगा कि मुझे मूल कविता ज़्यादा पसंद आयी... ज़्यादा खुलकर भाव उसमें व्यक्त हुए हैं!! क्षमा चाहूँगा यदि धृष्टता हुयी हो तो!!

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  18. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!यदि किसी ब्लॉग की कोई पोस्ट चर्चा मे ली गई होती है तो ब्लॉगव्यवस्थापक का यह नैतिक कर्तव्य होता है कि वह उसकी सूचना सम्बन्धित ब्लॉग के स्वामी को दे दें!
    अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

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  19. बहुत सुंदर प्रस्तुति.............फिर से लिख ही दूंगी प्रेम गीत ........

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  20. कविता की रूह में बहुत फर्क दिखाई देने लगा है मसलन ...

    लिख ही दूंगी फिर कोई प्रेम गीत ( अतुकांत )= लिख देना फिर कोई प्रेम भरा गीत ( तुकांत )

    कदम मगर जमीन पर ही तो थे (अतुकांत ) = अब ज़रा ज़मीन पर कदम तो टिका लो ( तुकांत )

    वगैरह वगैरह !

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  21. दोनों कविता का अपना अलग सौन्दर्य है जो खुबसूरत दिख रही है .

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  22. बेहतरीन,..अति उत्तम ..
    सुंदर पोस्ट ,.......
    मेरी नई पोस्ट 'प्रतिस्पर्धा'में इंतजार है...

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  23. इन दिनों न जाने क्यों ब्लॉग जगत की हर कविता मुझे अपने पर उतरती दिखायी देती है -बढियां है !

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  24. विचारों का प्रवाह चलता रहे ... जीवन अपने आप कविता बन के ढल जाता है ...

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