रविवार, 4 अगस्त 2013

तुम्हारी मुक्ति ही उनकी आजादी है !!




समूह में घिरी हुई तुम 
दिख जाती हो अक्सर 
बेरंग बदरंग चेहरे 
तुमसे चिपटते , बलैया लेते 
एक दूसरे की बहन बनाते 
तुम्हे बोल्ड और ईमानदारी का तमगा पकड़ाते 
जिनकी आँखों की बेईमानी 
साफ़ नजर आती है.
तुम्हे नजर नहीं आता या 
झूठे तमगों की  सुनहरी रौशनी में 
अपनी गर्दन ऊँची कर तुम 
गटक जाती हो 
अपनी सब निराशाओं को 
नाकामियों को … 

या कि 
कंटीली झाड़ियों के दुष्कर पथ पर 
अपने क़दमों के निशा रखती हो 
पीछे चले आने वाले 
नन्हे क़दमों को संबल देते  
जो तुमसा होना चाहते हैं 
तुम हो जाना चाहते हैं !!
अपनी मुक्ति का जयघोष करते 
इन्द्रधनुषी रंगों की सतरंगी आभा 
भली लगती है तुम्हारे चेहरे पर 
तुम्हारी आँखों में 
मगर 
क्या समझना है तुम्हे 
मुक्त किससे होना है तुम्हे 
मुक्ति का मार्ग बताने वाले 
मुक्ति के गूंजा देने वाले नारों के बीच 
चुप रह जाने वालों की भाषा 
तुम समझोगी  नहीं 
कुछ घुटी -घुटी चीखें 
सूनी आँखों से बताती है 
तुम्हारी मुक्ति ही उनकी आजादी है !!

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

घोंघा- सी होती जाती हैं स्त्रियाँ ....



कठोर आवरण की ओट में 
नन्हे नाजुक कदम बढ़ाते देख 
घोघा बसंत कह  
हंसने वालों का साथ देते 
कई बार आत्मग्लानि में 
सिहरा मन 
जाने कितनी धूप 
कितनी बारिश 
कितनी सर्दी 
झेलकर पाई होगी यह कठोरता 
जैसे कि कर्कशा स्त्रियाँ! 

जरा सी आहट पर 
सिकोड़ कर कदम  अपने  
घुस जाते हैं खोल में 
खोल कर एक सिरा 
हलके से परे झांकते 
जाने कितने भय रहे होंगे 
जैसे कि भयभीत स्त्रियाँ !

होती हैं एक दूसरे  से विपरीत 
भयभीत और कर्कशा स्त्रियाँ !
मगर फिर भी कितनी एक -सी 
घोंघा -सी ही होती जाती हैं स्त्रियाँ  !!




नोट -गद्य कह पढ़ ले या कहें कविता , आपकी मर्जी !!

सोमवार, 6 मई 2013

जो होता है वह नजर आ ही जाता है...



जो होता है वह नजर आ ही जाता है
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सूरज अपने प्रकाश का विज्ञापन नहीं देता
चन्द्रमा के पास भी चांदनी का प्रमाणपत्र नहीं होता!

बादल कुछ पल, कुछ घंटे , कुछ दिन  ही
ढक सकते हैं ,रोक सकते हैं
प्रकाश को , चांदनी को ...

बादल के छंटते ही नजर आ जाते हैं
अपनी पूर्ण आभा के साथ पूर्ववत!

टिमटिमाते तारे भी कम नहीं जगमगाते
गहन अँधेरे में जुगनू की चमक भी कहाँ छिपती है!

जो होता है वह नजर आ ही जाता है देर -सवेर
बदनियती की परते  उतरते ही ! 
(या मुखौटों के खोल उतरते ही !!)