गोद मे उठाये एक मासूम
पल्लू से सटे दो नन्हे
कालिख से पुते चेहरे
उलझे बाल जटाओं जैसे
बढे पेट के भार से झुकी
दुआएं देती हाथ फैलाये
आ खड़ी हुई द्वार पर ....
तरस खा कर कभी दिया
कभी अनदेखा भी किया
देखे अनदेखे में मगर
सोचा है कई बार....
पेट की आग से क्या बडी है
इनके तन की आग...
या कि
शीतलता देती हैं उन्हें
जलती हुई नफरत से भरी
कुछ आँखों की आग!!
आपकी कविता पढ़ी तो बचपन के दृश्य याद आये जब हमारे गाँव में भी ऐसे लोग आते थे. ये लोग यायावरी जीवन जीते थे .
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है कि ऐसा दो कारणों से हो सकता है. एक तो परिवार नियोजन के तरीकों की जानकारी नहीं होना और दूसरा उचित स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के बाल मृत्यु दर ज्यादा होना. शायद दोनों बातें इन्हें प्रभावित करती हों.
कभी पेट की आग में जलती हैं, कभी हवश का शिकार होती हैं ।
जवाब देंहटाएंवहशीपने को मरे शरीर में भी सिर्फ अपनी आग दिखाई देती है
जवाब देंहटाएंसोचा है कई बार,
और …मन की ऐंठती स्थिति को झटका है
.... !!!
निःशब्द करती पंक्तियाँ, कैसी विडंबना और कैसा सवाल ?
जवाब देंहटाएंकभी पेट की आग में जलती हैं, कभी हवश का शिकार होती है ...................और कभी कोख को भी बाजारू माल की तरह प्रदर्शित कर रही होती है। कभी अपनी मजबूरी से कभी पीछे छुपे माफिया की जोर से ।
जवाब देंहटाएंमैंने एक बार बचपन में अपने पिताजी को कहा था कि मुझे सर्दियाँ बहुत अच्छी लगती हैं, क्योंकि हमें बहुत अच्छे अच्छे स्वेटर पहनने को मिलते हैं. तब पिताजी हमें रात को सड़क पर ले गये यह दिखाने की यह मौसम कितना खराब होता है.
जवाब देंहटाएंबरसों बाद मैंने कलकत्ता में एक होटल के ठण्डे चूल्हे की राख निकलने वाले छेद में एक साथ आठ लोगों को आधा बदन डाले सोते देखा तो विश्वास नहीं हुआ कि यह मनुष्य हैं!!
आज आपकी कविता ने ( बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर) वही भाव फिर से जगा दिये... मन भर आया!!
तकलीफदेह स्थिति बयान की आपने . तमाम ज्ञान /प्रचार के बावजूद न रूकती ये परिस्थितियां किस ओर इशारा करती हैं , यही विचार बन जाता है . आभार !!
हटाएंसार्थक भावप्रणव मार्मिक रचना।
जवाब देंहटाएंआभार !
जवाब देंहटाएंगरीबी या औरत तेरी यही कहानी ..
जवाब देंहटाएंमार्मिक रचना..
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंहमारे देश में यह दृश्य काफी बार देख सकते हैं।
जवाब देंहटाएं:(
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंपेट की आग ही है जो सब कुछ करवा देती है ... समय की विडंबना है न चाहते हुए भी सब कुछ करना पड़ता है ... कटु सत्य लिखा है ...
जवाब देंहटाएंअनुपम रचना...... बेहद उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@मेरे सपनों का भारत ऐसा भारत हो तो बेहतर हो
मुकेश की याद में@चन्दन-सा बदन
कुछ आंखों की आग शांत नहीं हो पाती .... हालात और वक्त इजाजत ही नहीं देते
जब अनदेखा करते हैं तो यही कारण मन में आता है ...... बन्जारे .....दिहाड़ी मजदूर . ..और भिखारी ...... बच्चे ही बच्चे लिए घूमते रहते हैं ..... :-(
जवाब देंहटाएंजिनके पेट भर होते हैं उनको कहाँ भूख की आग का पता होता है ।एक कड़वा प्रश्न करती रचना ।
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