ह्रदय - अम्बुधि अंतराग्नि से
पयोधिक -सी छटपटाती उछ्रंखल
प्रेममय रंगहीन पारदर्शी
कवितायेँ
जिन्हें लुभाता है सिर्फ एक रंग
कृष्ण की बांसुरी का
लहरों के मस्तक पर धर पग
लुक छिप खेलती
प्रबल वेग के प्रवाह से
दौड़ी आती छू लेने को किनारा
घबराई हिचकती
भयभीत लौटती हैं
पुनः हृदय -समुन्दर के अंचल में
जब देखती हैं
तट पर उत्सुक मछेरे
किसम -किसम के
"वाद " की झालरें टंगी
गुलाबी मत्स्य जाल फैलाये
बलात रंग चढाने को आतुर
कभी हरा कभी केसरिया
कभी रंग लाल कुल्हाड़ी तो
कभी नीला हाथी
घोर कविताहीन बना दिए जाने वाले
इस समय में
स्वतः स्फूर्त
प्रत्यूष लालिमा- सी उत्फुल्ल
रहने वाली
कोमल कवितायेँ
आजकल
धूमिल -मुरझाई
मीठे वचनो मे जिनके
दबी है फ़ुसफ़ुसाहटे
अवसरवादी
भाषाविद मछेरों
की ड्योढ़ी
पर ठिठकी हैं !
कविता का भाव और शिल्प दोनों अद्भुत है -
जवाब देंहटाएंभवभूति ने भले ही कहा है कि एको रसो करुण एव और आप भी
जो चाहे कह लें मगर असली रंग श्रृंगार का है प्रेम का ,,,
बस इसी ढाई आखर में ही समस्त जन कल्याण अन्तर्निहित है ..
यह रंगहीन भले दिखे मगर परिणाम रंग बिरंगा होता है ..
यह अनुभव की बात है ......और वे धन्य है जो इस महा रंग रास का अनुभव करते हैं ...
कविता के शब्दों का चयन हरिऔध जी की याद दिला गया जो खडी बोली के ख्यात कवि रहे ....
अपने कवयित्री मित्रों को कुछ शब्दों का अर्थ भी बता देना था न -अम्बुधि ,अंतराग्नि ,पयोधिक ,प्रत्यूष (बड़ी ई है न ? )
.....कुछ तो मुझे भी नहीं मालूम -काश विज्ञान लेकर न पढ़ा लिखा होता :-(
और हाँ ,मछलियों और मछेरों के भाव -संबोधन पर मुझे आपत्ति है -इनसे ही मेरी जीविका चलती है ... :-)
जवाब देंहटाएं,एरी दरख्वास्त है कि अप इंटरनेट पर खोज कर आज ही गीत जरुर सुन लें -इन जीवों पर आपका नजरिया बदल जायेगा -
एक बार जाल फिर फेंक रे मछेरे न जाने किस मछली में फसने की चाह हो ...... :-)
बिन कांटे की मत्स्य यह, जीवन-रस से खींच |
जवाब देंहटाएंमछुवारे वारे चतुर, बुद्धि विलासी भींच |
बुद्धि विलासी भींच, सींचता संस्कार से |
हल्दी नमक लगाय, रोचता है विचार से |
उलट पुलट दे भूंज, किन्तु बदबू फैलाये |
जय हो कविता मत्स्य, रखे काया सड़ जाए ||
आपका जवाब नहीं !
हटाएंमुझे तो लगता है कि आज कल कि कवितायें बहुत सहज और सरल हैं ... सीधे सीधे भावों को उकेर देती हैं ..... हाँ वाद में फंसी हो सकती हैं या फिर मछेरे ही बहुत चतुराई से जाल फैलाते हों ....
जवाब देंहटाएंसोचने को विवश करती प्रस्तुति
कवितायेँ तो सहज सरल ही हैं , बात तो जाल फैलाये मछेरों की ही है :)
हटाएंवाद से विवाद उपजा है, काश वह संवाद में बदले..
जवाब देंहटाएंयही तो !
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट अभिव्यक्ति ... आभार
जवाब देंहटाएंवाद विवाद कर लोग ,यहाँ मसला उलझाते
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति देख,जबरन है टांग अडाते,,,,,,
RECENT POST ...: जिला अनूपपुर अपना,,,
अवसरवादी
जवाब देंहटाएंभाषाविद मछेरों
की ड्योढ़ी
पर ठिठकी हैं !
अक्सर ऐसा क्यों होजाता हैं ?
अद्धभुत अभिव्यक्ति :)
बहुत ही खूबसूरत लिखा है ....... ब्लॉग - जगत में अपने विचारों को अन्य पर लादने की आपाधापी में बहुत सुकून दे दिया आपने .......
जवाब देंहटाएंरचना अदभुत है ... पर इसके प्रवाह में कोई मछली अटकी सी लगी है !पर - किसी वाद के जाल में भावों की मछली देर तक नहीं रहती .
जवाब देंहटाएंऊं हूँ ...अटकी दिखती है मगर है नहीं .. वरना कविता कैसे दिखती :)
हटाएं:)
हटाएंvery good thoughts.....
जवाब देंहटाएंइन कविताओं को भाषाविद मछेरों ड्योढ़ी पर जाने जरूरत क्या थी? :)
जवाब देंहटाएंशानदार अभिव्यक्ति
मछलियाँ तो अपनी धुन में तैरती हैं , उन्हे पता नहीं था कि मछेरों के पास जाल है , पता चलने पर लौट ही गयी ना :)
हटाएं:)
हटाएंकिसी भी वाद को खारिज होना ही पड़ता है और कोमल कवितायें ही चिरजीविता होती हैं.
जवाब देंहटाएंलाख टके की बात !
हटाएंआजकल इन भाशःआविद मछेरों के पास नाईलोन के मजबूत जाल और पावरफ़ुल मोटरबोट होती हैं.:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
आजकल मछलियाँ भी बड़ी समझदार होती हैं :)
हटाएंभूल सुधार
जवाब देंहटाएंभाशःआविद = भाषाविद
रामराम
आभार !
जवाब देंहटाएंकोमल कविताओं का अपना अलग रंग है
जवाब देंहटाएंजिसे बेरंग नहीं किया जा सकता
Badee anoothee rachana!
जवाब देंहटाएंकविता के लिये प्रेममय रंगहीन पारदर्शिता भी तो एक वाद(विचार)ही है !
जवाब देंहटाएंऔर एक रंग कृष्ण की बांसुरी का रंगबिरंगे मछुवारों की तर्ज़ पर वाद ही कहलायेगा !
तट के रंगमय मछेरों की उत्सुक्ता के बरक्स रंगहीन अनुत्सुक अमछेरापन भी एक वाद ही माना जाएगा !
यहां घोर कविताहीनता भी वाद है और घनघोर कवितामयता भी !
कृत्रिमता वाद है तो स्वतः स्फूर्ति का विचार भी वाद ही है !
लालिमा कोमलता उत्फुल्लता धूमिलता मुरझायापन बनाम खुरदरापन कालिमा कठोरता वगैरह वगैरह पे जा अटकना भी वाद ही है !
अवसरवादी भाषाविद और अन अवसरवादिता भी वाद से इतर नहीं है !
इस दुनिया में वाद मुक्त कुछ भी नहीं है चाहे समेकित हो या व्यक्तिवाद !
आपकी कविता अच्छी है पर उसकी मूल भावना से हमारी असहमति का आधार ही प्रति'वाद' है :)
आपकी सारी असहमतियां भी एक "वाद" ही सही :)
हटाएंहां यही तो कहना चाह रहा हूं :)
हटाएं:)
हटाएंकविता में अपार शक्ति होती है ..वो वाद विवाद से परे होती है ....वो तो अभिव्यक्त हो कर ही मानती है ...!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुदृढ़ विचर देती उत्कृष्ट रचना ...वाणी जी ....बधाई स्वीकार करें...
सत्य वचन !
जवाब देंहटाएंवाद-प्रतिवाद-विवाद से परे मुझे कविता अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंकविता के शब्द ...अपने आप से बोलते हैं :)))
जवाब देंहटाएंमन के भाव कहाँ वादों-प्रतिवादों के जाल में फंसते हैं...
जवाब देंहटाएं- कविता मतलब सीधी सच्ची सुन्दर बात!
जवाब देंहटाएं- सफलता से सफल क्या होगा? फिर, जो गैंग सारी दुनिया को ही मेरावाद-तेरावाद में बाँटने-काटने को आतुर हैं, उनके पंजों से कविता कैसे बचे? बाकी बात फिर कभी ...
ये सारे वाद उन लोगों के गढे हुए हैं जो आलोचना तो कर सकते हैं, रचना नहीं कर सकते!! ये 'वाद' संवाद को कम और विवाद को ज़्यादा जन्म देते हैं!!
जवाब देंहटाएंआपकी कविता तो वैसे भी कुछ नई सीख देती है!!
स्पैम!!
जवाब देंहटाएंवाद विवाद से परे आपकी कविता पढ़ना अच्छा लगा..आभार!
जवाब देंहटाएंये कविता की लहर जिसमें कृष्ण की बांसुरी के रंग के साथ मछुआरों के जाल का रंग भी है ।
जवाब देंहटाएंइस द्वन्द को कविता में बहुत खूबसूरती से पेश किया गया है. बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंवाह ...
जवाब देंहटाएंदो टूक समीक्षा प्रस्तुत करती है यह कविता।..वाह!
जवाब देंहटाएंek taraf aap prem mayi aur krishn ki bansuri ka rang lubhae wala kah rahi hain to vo rangheen kaise ho sakti hain.
जवाब देंहटाएंbaki sabka apna apna nazariya hai....
कविता तो स्वयम रंगहीन ही है ना , कृष्ण की बांसुरी का रंग लुभाता अवश्य है उसे!
हटाएंवाद से परे यह कविता अपने रंग की छटा बिखेर रही है।
जवाब देंहटाएंवाद की झालरों से सतर्क (भयभीत नहीं) हो कर ही शायद उचित एवं अर्थपूर्ण संवाद का मार्ग निकलता है...
जवाब देंहटाएंकविता तो हम भी लिख लेते हैं, पर ये शिल्प और शब्द कहाँ से लाएँ ......... टू गुड दी !!
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