शुक्रवार, 11 मार्च 2011

अवाक होने के चक्रव्यूह से बचने और निकलने की कविता ....

रश्मि प्रभा जी की कविता " अनुत्तरित ही सही " पढ़ी ...सोचती ही जा रही थी कि कुछ प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं , वे हमने स्वयं अपने आपसे किये या हमसे अथवा प्रभु से पूछ लिए गए ...इन्ही दिनों हाथ लगी इस माह की अहा! जिंदगी , हर बार इस पत्रिका से कुछ न कुछ नया उत्साहपूर्ण/बेजोड़ मिल जाता है ...इसी मे पढ़ी चंडीदत्त शुक्ल जी की कविता " अपने ही गर्भ में छिपा लो " ...पढ़ते हुए अपनी एक पुरानी कविता याद आ गयी , चक्रव्यूह में घिरने से पहले ही लौट आने की को कहती कविता ...दो शब्द मिले थे मुझे , उन्ही के ताने- बाने में बुनकर जाने कैसी कल्पनाओं में एक कविता का जन्म हुआ ...भान होने लगा कि सृष्टि में कहा- लिखा एक भी शब्द अनुत्तरित नहीं होता , प्रतिध्वनि की की तरह लौट आता है , कभी स्वयं वही शब्द , कभी जवाब स्वयं !


अपने ही गर्भ में छिपा लो ...सिखा दो ...अभेद्य मंत्र

अनजाने चेहरों वाली
सीमाओं से पार
भाषाओँ से इतर
कई तस्वीरें
देखी ..सुनी ...पहली -पहली बार
तुम्हारे ही संग
उनमे बसा प्रेम
उभरा तब तुम्हारी आँख से
छलका हमारे होठों तक
आज फिर
गया उसी दौर में
पर अबूझ रह गए वो चित्र
जड़ है नायक
स्थिर नायिकाएं
ना वहां युद्ध था
ना प्रेम
था तो बस एक अटूट एकांत
सन्नाटा ! जिसे चीर पाना नहीं मुमकिन मेरे लिए
बिना तुम्हारे
अब अपने ही गर्भ में छिपा लो
जन्म देने से पहले सिखा देना
अवाक हो जाने के चक्रव्यूह से निकलने का अभेद्य मंत्र !

......चंडीदत्त शुक्ल

और अब मेरी कविता ...

लौट तो आना ही होगा ....

तुम्हे लौट कर आना ही होगा
कि हो सकूँ
इस अपराध बोध से मुक्त
स्नेहासिक्त हो अनजाने ही कही
मैंने ही तो नहीं दिया
बाधित कर दे जो सृजन
उन अँधेरी गुहाओं को तुम्हारा पता
जिन पर मीलों सफर किया मैंने तनहा
कि अब तो अँधेरे में भी देख सकती थी
उजाले की वह किरण
अँधेरी गुफा के आखिरी छोर से आती है जो
या कहीं
स्नेहाधीन हो
तुम स्वयं ही तो नहीं चले आये कहीं
बिछी बिसात पर चल दिए गए प्यादों की तरह
चक्रव्यूह में घेर लिए जाने से अनजान
जिसे भेदने का गुर अभी तुमने सिखा ही नहीं
लौटना ही होगा तुम्हे
खड़े हो जहाँ अभी इसी वक़्त
उलटे पैरों वहीँ से
कितनी जोड़ी आँखें टिकी है तुम पर
जिनमे है विश्वास
रचोगे तुम ही
काव्य -सृजन का नव इतिहास !


रश्मि प्रभा जी और चंडीदत्त शुक्ल जी की कविताओं से खुद की कविता को जोड़ने का मेरा तात्पर्य हरगिज़ ये नहीं है कि मैं स्वयं को उन्हीकी श्रेणी की कवयित्री मान बैठी हूँ , मेरे आदर्श जरुर हैं इस तरह शब्दों के धनी/शिल्पकार !

............................................................

37 टिप्‍पणियां:

  1. दोनों ही कवितायें अद्भुत हैं ! अनुपम, बेजोड़, बेमिसाल ! एक में चक्रव्यूह को तोड़ने का अभेद्य मन्त्र सीखने के लिये गर्भ में छिपा लेने का आग्रह है तो दूसरी में वह कहीं चक्रव्यूह में ना फँस जाये इसके लिये उसे सतर्क करते हुए लौट जाने की चेतावनी है ! दोनों कवितायें एक दूसरे की पूरक लग रही हैं ! पहली कविता का प्रत्युत्तर दूसरी कविता में मिल रहा है ! आपने वाकई सच कहा कोई भी प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहता बस हम ही कभी-कभी सुनने से चूक जाते हैं शायद ! दोनों कवितायें बहुत खूबसूरत हैं ! आभार एवं शुभकामनायें !

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी इस कविता के नामाकरण से लेकर उसकी अंतर्वस्तु में निहित कथा तक कविता को एक नया संस्कार देते हैं। एक दर्शन और जीने के हठ का संकेत है।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह, दोनो कविताएं अद्भुत भाव लिए हैं। बहुत सुंदर।

    आभार

    जवाब देंहटाएं
  4. तुम स्वयं ही तो नहीं चले आये कहीं
    बिछी बिसात पर चल दिए गए प्यादों की तरह
    चक्रव्यूह में घेर लिए जाने से अनजान
    जिसे भेदने का गुर अभी तुमने सिखा ही नहीं
    लौटना ही होगा तुम्हे
    ...
    अब तुम प्रतिध्वनि बन लौटो
    या अनुभवों का निनाद बन लौटो
    आना होगा तुम्हें
    क्योंकि प्रतीक्षारत कई आँखें खड़ी हैं
    तुम्हारे लिए !
    .........................वाणी जी , आपकी कलम जिस उंचाई पर है , उसकी एक अलग पहचान है . आकाश हमेशा अपना होता है , सूरज , चाँद , सितारे भी अपने अपने होते हैं . आकाश पर जब भावनाओं के बादल घुमड़ते हैं तो बरसते हुए वे कभी आंसू दिखते हैं, कभी शब्द, कभी संभावनाओं की सौंधी गंध !
    इस रचना ने भावनाओं को हर रूप में संजोया है ...

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही सुंदर दो कविताओं का तोहफा पसंद आया

    जवाब देंहटाएं
  6. आद. वाणी जी,
    "कितनी जोड़ी आँखें टिकी है तुमपर,
    जिनमे है विश्वास
    अचोगे तुम ही
    काव्य-सृजन का नव इतिहास "
    कविता में शिल्प और भाव दोनों ही पूरी प्रखरता से मुखरित हुए हैं !
    आभार !

    जवाब देंहटाएं
  7. आदरणीय साथी...
    अद्भुत उपहार। आभार आपका। आप सुंदर लिखती हैं। मुझ अकिंचन की स्वानुभूति को अपनी अहम कविता के साथ शामिल करने का आदर देने पर आभार के लिए शब्द ही नहीं हैं।

    जवाब देंहटाएं
  8. दोनो ही कविताये गहन भावो से सराबोर हैं।

    जवाब देंहटाएं
  9. दोनों ही कविताएँ संवेदनाओं का अनुपम उदाहरण हीं ...


    लौटना ही होगा तुम्हे
    खड़े हो जहाँ अभी इसी वक़्त
    उलटे पैरों वहीँ से
    कितनी जोड़ी आँखें टिकी है तुम पर
    जिनमे है विश्वास
    रचोगे तुम ही
    काव्य -सृजन का नव इतिहास !

    मन की कश्मकश को आदेश रूप दे कर विराम दिया है ..बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  10. चंडीदत्त जी की कविताएँ तो पढ़ती आई हूँ....बहुत ही गहरे भाव होते हैं.
    तुम्हारी कविता भी बहुत ही अच्छी है.

    जवाब देंहटाएं
  11. काफी साम्य सा है दोनों कविताओं में -अचम्भित करता हुआ..
    कवि सत्य एक से हो सकते हैं -भले ही अलग देश काल में उपजे हों -

    जवाब देंहटाएं
  12. इस कविता की अभिलाषा पूरी हो, यह मंगलकामना है मेरी भी।
    दोनों ही कविताएँ बहुत सुन्दर लगीं।

    जवाब देंहटाएं
  13. भावों में गहराई ही कविता की ऊँचाई है. वाणी जी अद्भुत कविता की लाखों लाख बधाई है

    जवाब देंहटाएं
  14. दोनों ही कालजयी रचनाओं के लिए अनेकों धन्यवाद और रचनाकारों को नमन..

    जवाब देंहटाएं
  15. सुन्दर कवितायेँ . दोनों ही भावप्रवण और मानस पटल पर अंकित होने लायक .

    जवाब देंहटाएं
  16. सुन्दर रचना। इसे पढकर मुझे भी कुछ पुरानी पंक्तियाँ याद आ गयीं।

    जवाब देंहटाएं
  17. इन बेहतरीन रचनाओं को पढवाने के लिए आभार।

    जवाब देंहटाएं
  18. अब जिसे पढ़ा है उसे ही आदर्श मानेंगे हम ! बाकी की आगे देखी जायेगी पहले उन्हें पढ़ तो लें !

    जवाब देंहटाएं
  19. bahut sundar likha hai , kabhi kabhi kisi brachna ka ek shabd hi poori poori nayi rachna gadh jata hai.
    donon ke adbhut sangam se upaji nayi kriti ke liye badhai.

    जवाब देंहटाएं
  20. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 15 -03 - 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.uchcharan.com/

    जवाब देंहटाएं
  21. प्रश्न अनुत्तरित नहीं होते.
    उनके उत्तर छिपे रहते हैं.
    आपने ढूंढ ही दिया एक अनुत्तरित प्रशन का उत्तर.
    आपकी कलम की वाणी बहुत ही अद्भुत है.
    गिने चुने ब्लॉग हैं यहाँ पर जा कर लगता है कि कुछ पढ़ा है.
    माऊस थम जाता है यहाँ आकर.
    ढेरों सलाम.

    जवाब देंहटाएं
  22. गहन भाव लिए इन स्तरीय रचनाओं को यूँ साझा करने का आभार ..... दोनों ही रचनाएँ बेमिसाल हैं ....

    जवाब देंहटाएं
  23. दोनों रचनाओं में अद्भुत साम्य है ....भाव और शिल्प पक्ष की दृष्टि से अगर विचार किया जाये तो दोनों रचनाओं का भाव एक दुसरे का पूरक लगता है ..आपका आभार

    जवाब देंहटाएं
  24. .........................वाणी जी , आपकी कलम जिस उंचाई पर है , उसकी एक अलग पहचान है . आकाश हमेशा अपना होता है , सूरज , चाँद , सितारे भी अपने अपने होते हैं . आकाश पर जब भावनाओं के बादल घुमड़ते हैं तो बरसते हुए वे कभी आंसू दिखते हैं, कभी शब्द, कभी संभावनाओं की सौंधी गंध !
    इस रचना ने भावनाओं को हर रूप में संजोया है ..

    Rashmi di ki uprokt kathan se purntah sahmat:)
    aap khud bejor ho..!
    aur sayad rashmi di aur shukla sir ke samkaksh bhi...!.

    जवाब देंहटाएं
  25. दोनों ही कविताएं भावनाओं के समंदर में बहा ले जाती हैं...बहुत गहन भाव और उनकी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति..बहुत सुन्दर

    जवाब देंहटाएं
  26. dono hi kavitaye ek se badkar ek hai .. jeevan ke naye shabdo se bharpoor ..

    badhayi sweekar kare..

    ---------

    मेरी नयी कविता " तेरा नाम " पर आप का स्वागत है .
    आपसे निवेदन है की इस अवश्य पढ़िए और अपने कमेन्ट से इसे अनुग्रहित करे.
    """" इस कविता का लिंक है ::::
    http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/02/blog-post.html

    जवाब देंहटाएं
  27. बहुत गहन भाव और उनकी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति|धन्यवाद|

    जवाब देंहटाएं
  28. लेकिन मुझे विश्वास है वाणी काव्य सृजन का इतिहास जरूर रचेगी। उत्कृष्ट रचना के लिये बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  29. रश्मि जी कि कविता मैं पढ़ चुकी थी, परन्तु चंडीदत्त जी कि नहीं... इसलिए सर्वप्रथम, धन्यवाद इस कविता को पढवाने के लिए...
    आपकी रचना बहुत ही सुन्दर है... और आप जैसे ही लोग काव्य-सृजन का इतिहास लिखते हैं... नया इतिहास...
    आभार...

    जवाब देंहटाएं
  30. पढ़ा तो था मेरी टीप भी दर्ज है यहां पर...कैसे भूल गया ?

    जवाब देंहटाएं