सोमवार, 3 जनवरी 2011

धरती के आराम ....लिख रहा है कही कोई प्रेम -पत्र




धरती के आराम
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कहीं कोई आवाज़ नहीं है
जैसे मैं शून्य मे प्रवेश कर रहा हूं
जैसे नवजात शिशु के रुदन स्वर से
दुनिया के तमाम संगीत आश्चर्य के साथ थम गये हैं
मेरी देह का सन्तुलन बिगड़ गया है
और वह लगातार कांपती हुई
पहली बारिश मे अठखेलियाँ करती
चिड़ियों की तरह लग रही है
मैं चाह्ता हूं इस वक्त दुनिया के
सारे काम रोक दिये जायें
यह धरती के आराम का समय है
न जाने कितने जन्मों की प्रतीक्षा के बाद
अनन्त कालों को लांघता हुआ मुझ तक पहुंचा है यह
मैं इसके शब्दों को छू कर मह्सूस करना चाह्ता हूं
तीन लोकों में फ़ैल गया है घोर आश्चर्य
सारे देवता हैरान- परेशान
दांतों मे उंगली दबाये भाव से व्याकुल
मजबूती से थामे अपनी प्रिया का हाथ
निहार रहे हैं पृथ्वी की ओर
कि जब संग- संग मारे जा रहे हैं प्रेमी
लगाया जा रहा है सम्मान पर पैबंद
प्रेम करती हुई स्त्री की खाल से
पुरुष कर रहे हैं पलायन
उनकी कोख में छोड्कर बीज
और एक क्रूर हत्यारा अट्टहास
फ़ैला है प्रेम के चहुंओर
कैसे सम्भव हुआ एक स्त्री के लिये
इस पृथ्वी पर प्रेम

एक अफ़वाह है जो फ़ैलने को है
एक हादसा है जिसे घट ही जाना है
एक राह है जिस पर
अन्गारे बिछाने की तैयारी है
एक घृणित कार्यवाई
बनाने को तत्पर है संस्कार
कलंक है एक भारी
जिसे धो देने को व्याकुल है सारा संसार
एक चैन की नींद
उस स्त्री की मृत्यु मे शामिल है
जो इन दिनों मुझसे कर रही है प्रेम
वे मेरा प्रेम पत्र पढने से पहले
उस स्त्री की मृत्यु चाह्ते हैं।



अनिल करमेले ...(लेखक)


अनिल जी की इस कविता ने इतना बांधा /बिंधा मन को ....कई -कई बार पढ़ा ...पढ़कर सोचती रही कई दिनों(अब तो महीनों कहना ही सही होगा ) तक कि किसी का लिखा प्रेमपत्र किसी स्त्री की मृत्यु का कारण कैसे हो सकता है ...प्रेम एक अनुभूति , निस्वार्थ भाव है ...पाप , अपराध , नफरत के अंधाधुंध विस्तारण के बाद भी यदि पृथ्वी टिकी हुई है तो वह एक मात्र कारण है ....मानव से मानव के बीच संचारित प्रेम .... प्रेम ना होता तो यह धरती शमशान होती.....संस्कारों के मुताबिक प्रेम की अभिव्यक्ति के प्रकार भिन्न हो सकते हैं ,
मगर प्रेम (वासना नहीं ) तो स्वयं जीवनदायी शक्ति है ....यह संहार का कारण कैसे हो सकती है ....
किसी महान व्यक्ति ने कहा भी है ... ‘प्रेम परमात्मा के दिव्य शरीर में संचारित होते हुए रक्त की भांति है। जीवन के लिए प्रेम ठीक ऐसा ही है जैसा कि तुम्हारे शरीर के लिए रक्त। वे इसके विरोध में कैसे हो सकते हैं?’ यदि तुम प्रेम-विरोधी हो जाओ तो तुम सिकुड़ने लगोगे।"
किसी को प्रेमपत्र लिखते देख कोई निर्मल ह्रदय क्या सोचता होगा ...
और यह सोचते -सोचते ही यह कविता बन गयी ...



लिख रहा है कहीं कोई प्रेम- पत्र
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देवता विभोर अनिमेष ताक रहे
उत्सुक खुद पुष्पांजलि लिए
तृण-समान दबाये
मंत्रों -ऋचाओं को
ओष्ठों के किनारे

बहिश्त में अप्सरायें
नृत्य- गान को तत्पर

उत्सेकी पयोधि डपट कर उर्मियों का उत्पात
उत्तरंग आकुल हैं करने को पद - प्रक्षालन

मलयानिल लज्जित रोके गंध -प्रवाह
निर्वाक प्रतीत होती हैं वाचाल दिशाएं
किन्तु
म्लिष्टि वाणी कर रही जैसे
अहर्निश ऋचाओं का गान ...
ज्यूं कंठ साध रही कोकिला ...

नव कलिकाएँ झाँक रही
नव किसलय की ओट लिए
आगत को है मधुरिम वसंत
ताल सज रहे कमल खिले ...

दिग -दिगंत को साक्षी मान
अपनी समिधा आप बनाये
स्थिर चित्त
द्वेष -कलुष - मालिन्य मिटाने
कस्तूरी कपूर गंध उत्फुल्ल
मुक्ताभ आभा उद्भासित
सूर्य -आभा मलिन सम्मुख जिसके
चन्द्र -विभा सकुचित फेरती मुख

सिर झुकाये
कही कोई उन्मत्त बावला
लिख रहा है ....
किसी को प्रेम- पत्र ...!


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चित्र गूगल से साभार .....

42 टिप्‍पणियां:

  1. दोनों कविताओं को गहराई से पढने के बाद मन में सकूँ का एहसास हुआ ....पूरी प्रकृति और इसके परिद्रश्य का जीता जगता स्वरूप इन कविताओं में उभर कर सामने आया है ..आपका आभार ..इन कविताओं को हमें पढवाने के लिए

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  2. अभी मैंने हिंदी में लिखने के लिये प्रयास ही किया था की कविता पब्लिश हो गया, दोनों कवितायें पहले निशब्द कर देती हैं फिर कुछ सोचने पर विवश करती हैं, प्रेम से ही इस सृष्टि का जन्म हुआ है , यदि प्रेम ही नकारा जायेगा तो अंत बहुत दूर नहीं!

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  3. अत्यंत ही सुन्दर चित्रण. धन्यवाद आपका जो रूबरू करवाया.

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  4. प्रेम का एक शब्द ही ईश्वर की मुस्कान है, मौन होते हैं खग, निहारता है चाँद, सूर्य अपनी उष्णता का ताप सहता है ......

    उत्सेकी पयोधि डपट कर उर्मियों का उत्पात
    उत्तरंग आकुल हैं करने को पद - प्रक्षालन... प्रभावशाली भावना

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  5. दोनों ही कवितायेँ बहुत ही प्रभावशाली हैं.
    अच्छी लगी...सुन्दर शब्द संयोजन से सजी तुम्हारी कविता

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  6. dono kavitayen prabhavshali aur ye padjh kar ke hi lagta hai ki iske rachnakaar ke pass sabdo ke sath pyari soch bhi hai.......:)

    regards!!

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  7. बहुत ही सुन्‍दर भावमय करते शब्‍द दोनों रचनाओं में बेहतरीन शब्‍दों का संगम है ।

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  8. जीवन के विविध पक्षों को चित्रित करतीं इन शानदार कविताओं के लिए आभार।

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    मिल गया खुशियों का ठिकाना।
    वैज्ञानिक पद्धति किसे कहते हैं?

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  9. इतना सुन्दर चित्रण अत्यन्त आन्तरिक भावनाओं का...

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  10. बन गई?

    सूर्य आभा मलिन सम्मुख जिसके,
    चन्द्र-विभा सकुचित फेरती मुख.

    बहुत ही सुन्दर,

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  11. वाणी जी ! मैं तो स्तब्ध हूँ दोनों कविताओं को पढकर.इतना विरोधाभास दोनों में और इतनी सुन्दर और प्रभावशाली.

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  12. क्या कहूँ...हतप्रभ हूँ...भाषा का इतना सुन्दर प्रयोग सार्थक रूप से किसी रचना में करना आसान काम नहीं होता लेकिन आपने जिस सहजता से रचना की माला में शब्दों के मोती पिरोये हैं के बस दंग रह जाने के सिवा और कोई उपाय नहीं है...इस श्रेष्ठ रचना की रचना के लिए बहुत बहुत बधाई...

    नीरज

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  13. दोनों ही कवितायें एक नया उभार लिये हैं भावों की कोमलता का।

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  14. कवितायेँ स्तब्ध करती हैं!
    बेहद प्रभावशाली!

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  15. प्रेम और प्रकृति का बेजोड संगम हैं दोनो ही कविताये और बेहद गहन चिन्तन के बाद उपजती हैं ऐसी रचनायें……………बेहतरीन प्रस्तुति।

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  16. दोनों ही कवितायेँ सुंदर भावों से भरी हुई..... रचनाओं में बेहतरीन शब्‍दों का सामंजस्य है .
    बचपन क़ी तस्वीर

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  17. सुन्दर और अद्भुत भावो से सजी विरोधाभास वाली कविता द्वय पढ़कर मन प्रफुल्लित हुआ . शब्द संयोजन उत्कृष्ट रहा . आभार .

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  18. वाणीगीत जी!
    ईमानदारी से दिल पर हाथ रखकर कोई कह सकता है कि इन कविताओं को पढकर कोई भी टिप्पणी देने की स्थिति में रह पाता है क्या!! कम से कम मैं नहीं हूँ..

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  19. अद्भुत! पहली कविता पढ़ते ही लगा कि किसी विदेशी कवि का है -उनके बिम्ब और प्रतीक अलग से हैं .मगर आपकी कविता नितांत देशज है -ऋचाओं की अपनी परम्परा के ही सर्वथा अनुकूल ..आप की रचना धर्मिता आपको कितना अलग और विशिष्ट बना देती है ...बिहारी बाबू से सहमत हूँ -ये शास्त्रोक्त और शाश्वत/कालजयी सी रचनाएं बहुत से विचार स्फुलिंग उत्पन्न करती हैं ....जिनकी अनुभूति तो होती है मगर उन्हें अभिव्यक्ति देना बहुत मुश्किल है ..
    आपके शब्दों /भावों का चयन बहुत अपना सा लगा.....यह रचना धर्मिता बनाए रखें -हाँ गिरिजेश जी एक बार देख कर इसे संपादित कर दें तो यह जबरदस्त रचना अपना अंतिम स्वरुप पा ले ....

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  20. वाणी जी ,
    मेरा व्यक्तिगत मत ये है कि अनिल करमेले की कविता का कोई सन्दर्भ / प्रेरणा स्रोत ज़रूर रहा होगा , संभवतः आनर किलिंग या प्रेम के विरुद्ध गहन सामाजिक असहिष्णुता के कोई हालात या फिर शायद कुछ और भी ! इसलिए उनकी कविता को प्रेम के कारण सार्वजनीन संहार की प्रतिनिधि कविता नहीं मान रहा हूं बल्कि उसे उसके किसी एक सन्दर्भ से जोड़ कर बांचने की कोशिश कर रहा हूं ! लिहाजा , उनकी कविता के लिए केवल एक शब्द 'अदभुत' ! ...आश्चर्य ये कि अरविन्द जी को यह कविता किसी विदेशी कवि की लगी !

    आपकी कविता करमेले जी की कविता से अनुभूत किसी विशिष्ट आशय को संबोधित कर सृजित की गई है अतः दोनों कविताओं के मंतव्य में अंतर आना ही था ! आपकी कविता करमेले की कविता के विरुद्ध सायास खड़ी की गई है अतः उसमें शाब्दिक शुद्धता का सुनियोजित आग्रह प्रेम की अनुभूति को सहज नहीं होने दे रहा !

    प्रेम जैसी मृदु धारणा के लिए संहार और शाब्दिक सैंडपेपर पीड़ादाई हैं अतः समतुल्य माने जायें ! कहने का आशय ये है कि अगर करमेले की कविता में संहार असहज करे तो आपकी कविता में शाब्दिक क्लिष्टता असहज करती है !

    दोनों कविताओं को पृथक पृथक पढूं तो आपकी कविता का मूल्यांकन भी करमेले की कविता के स्तर पर ही करूँगा !

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  21. सिर झुकाये
    कही कोई उन्मत्त बावला
    लिख रहा है ....
    किसी को प्रेम- पत्र ...!

    प्रेम कोई शब्द नहीं है यह तो है एक भाव
    प्रकृति की अनुपम छटा और बिम्ब हैं दोनो कविताओ मे
    सुन्दर

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  22. दूसरी कविता..क्लिष्ट शब्दावली से भरी.
    पहली? या दूसरी? नही दोनों प्रेम की बात करते हैं एक समाज की प्रतिक्रिया दर्शाती दूसरी व्यक्तिगत मनो भावों को उकेरती.
    प्रेम ईश्वर है,पूजा है.फिर एक प्रेम पत्र की सजा स्त्री के देह की खाल से सम्मान पर पैबंद ....सवाल प्रेम पत्र का नही.सवाल प्रेम के नाम पर शारीरिक शोषण और परिणति,प्रतिफल भुगतने को स्त्री को अकेला छोड़ देने का भय मात्र है और उसी की प्रतिक्रिया स्वरूप प्रेम पर या प्रेम पत्रों पर परिजन अंकुश लगाते हैं.उन्होंने दुनिया देखि होती है और उसके विकृत रूप को भी.इसी कारन वे रोकते है अपनी बेटी को (बेटे की खाल नही खींची जाती इस हेतु)कोई प्रेम पत्र और प्रेम के नाम पर छल ना जाए उसे.पूछिए ऐसे पेरेंट्स और 'समाज' को क्या इसकी जद में मूल कारन ये नही? प्रेम और शारीरिक आकर्षण में एक बहुत बारीक़ रेखा-सा अंतर होता है.सो ट्रक देने वाले खड़े हो जायेंगे.छोडो...प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो.

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  23. सॉरी प्यार ट्रक का क्या काम तर्क ..तर्क

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  24. वाणी जी,
    आपकी कविता के भाव उत्तम हैं।

    आभार

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  25. अनिल जी की कविता सच ही सोचने को मजबूर करती है ..और उसका असर आपकी एक बेहतरीन रचना में दृष्टिगोचर हो रहा है .
    जैसे शंख बज उठे हों ,मन्त्रों का उच्चारण हो रहा हो.
    इस कविता पर कोई प्रतिक्रिया देने की स्थिति में नहीं हूँ ..बस सोचने और समझाने का प्रयास कर रही हूँ ..

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  26. दोनों ही कवितायें अंतर्मन के गहन भावों को आंदोलित करती हैं !
    शब्द संरचना उत्तम और प्रभावपूर्ण है !

    ब्लॉग जगत को नव वर्ष का अनमोल तोहफा हैं ये कवितायें !

    वाणी जी,आपका बहुत बहुत धन्यवाद, इतनी सुन्दर,भावपूर्ण रचना पढवाने के लिए !

    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  27. दोनों रचनाएँ उम्दा हैं .... धन्यवाद हम तक पहुँचाने के लिए ...

    आपको और आपके परिवार को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ

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  28. प्रेम जितना अनमोल है और उसकी अभिव्‍यक्ति उससे भी ज्‍यादा ।

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  29. दोनों ही रचनाएं बहुत अच्छी हैं..बहुत ही अच्छी...

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  30. लाख पहरे बिठा दो लेकिन प्रेम अमर है .

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  31. अद्भुत काव्य ग्रंथ है यह प्रेरणादायक भी!! प्रेम के शिखर तक विजय!!
    सत्य ही है,यह कालजयी रचना ही है।

    लोहड़ी,पोंगल और मकर सक्रांति : उत्तरायण की ढेर सारी शुभकामनाएँ।

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  32. बेहतरीन कवितायें पढवाने के लिए आपका आभार।

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  33. एक एक शब्द एक एक पंक्तियों में गहनता है

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  34. निशब्द करती रचनाएँ...... बहुत ही सुंदर

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  35. वाणी जी, पता नहीं यह कविता आपको किस पत्रिका या अख़बार से मिली...? आपस परिचय के बाद आपके द्वारा लिंक भेजने पर मैं इसे देख पा रहा हूँ. मित्रों की प्रतिक्रियाएँ पढ़कर अच्छा लगा. सभी के प्रति आभार...

    यह कविता लिखते समय बहुत बेचैनी थी, ऑनर कीलिंग एक बड़े सामाजिक अत्याचार की तरह है, जो इस कविता को लिखने के मूल में है. यह समाज, जिसे हम वैज्ञानिक और आधुनिक कहते हैं, वह आज भी प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर पाता है. एक स्त्री के लिए यह आज भी आसान नहीं है, हम अपने "क्लास" से आगे वृहतर दृष्टि डालें तो यह साफ दिखता है.

    बहरहाल, आपका आभार... आपकी कविता पर क्या कहूँ...अच्छी है, शब्द थोड़े बोलचाल के होते तो वह और ज़्यादा अपील करती, जैसी आपकी अन्य कविताएँ हैं. मेरी कविता प्रेम के विरोध के प्रतिरोध की कविता है और आप सीधे प्रेम की सुंदरता और जीवन में उसकी उपादेयता का पक्ष रख रही हैं, बस यही फ़र्क है...

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