मन ...हमारी हर कामना या गतिविधि का कारण हमारा मन ही है जो कभी दिल ...कभी दिमाग से संचालित होता है ...और कई बार दिल और दिमाग की रस्साकसी में इस बेचारे मन का कचूमर बन जाता है ....
कितना अच्छा हो यदि कभी हम अपने आपको अपने मन से अलग कर के देख पाए ...सोच कर ही अव्यक्त सी ख़ुशी मिल रही है ....मन बीच में खड़ा है किसी इंसान की तरह ...और उसे हम कभी दिमाग ...कभी दिल से देखते हो बारी- बारी ....यदि मन से अलग हुआ जा सके तो दुष्ट याददाश्त से पीछा भी छूट जाए ....मगर दुःख मिटने के साथ मन से जुडी सारी खुशियाँ भी चली गयी तो ......!!
तू बता मेरे मन क्या देखूं क्या ना देखूं ...........
कितना अच्छा हो यदि कभी हम अपने आपको अपने मन से अलग कर के देख पाए ...सोच कर ही अव्यक्त सी ख़ुशी मिल रही है ....मन बीच में खड़ा है किसी इंसान की तरह ...और उसे हम कभी दिमाग ...कभी दिल से देखते हो बारी- बारी ....यदि मन से अलग हुआ जा सके तो दुष्ट याददाश्त से पीछा भी छूट जाए ....मगर दुःख मिटने के साथ मन से जुडी सारी खुशियाँ भी चली गयी तो ......!!
तू बता मेरे मन क्या देखूं क्या ना देखूं ...........
चल मेरे मन कुछ दिन तुझे तुझसे अलग होकर भी देखू
टूटे ना दिल किसी का ये जतन कर के भी देखूं
बस्ती फूँक दी किसी ने घर जलते रहे चिताओं सेगली के आखिरी छोर पर अपना मकान देखूं
किसी मासूम के हाथ से छीन कर ले गया निवाला श्वान
छप्पन भोगों से सजी थाली किसी मंदिर में देखूं
ममता भर -भर उड़ेली जिस किसी भी अपने पर
हाथ उठा उसका पकड़ने को अपना गिरेबान देखूं
नफरतों की आंधियों में अडिग रहा मस्तूल देखूं
मुहब्बत में हुआ बर्बाद, अजब जहाँ का दस्तूर देखूं
रोकर आँख सुजाई जिसने, गले उसे लगाकर देखूं
खिलखिलाता जो बचपन था, उसे परे हटाकर देखूं
तू बता मेरे मन क्या देखूं क्या ना देखूं...
टूटे ना दिल किसी का ये जतन कर के भी देखूं
बस्ती फूँक दी किसी ने घर जलते रहे चिताओं सेगली के आखिरी छोर पर अपना मकान देखूं
किसी मासूम के हाथ से छीन कर ले गया निवाला श्वान
छप्पन भोगों से सजी थाली किसी मंदिर में देखूं
ममता भर -भर उड़ेली जिस किसी भी अपने पर
हाथ उठा उसका पकड़ने को अपना गिरेबान देखूं
नफरतों की आंधियों में अडिग रहा मस्तूल देखूं
मुहब्बत में हुआ बर्बाद, अजब जहाँ का दस्तूर देखूं
रोकर आँख सुजाई जिसने, गले उसे लगाकर देखूं
खिलखिलाता जो बचपन था, उसे परे हटाकर देखूं
तू बता मेरे मन क्या देखूं क्या ना देखूं...
चित्र गूगल से साभार
कविता पढ़ कर कुछ लिखने को 'मन' कर गया...:)
जवाब देंहटाएंउड़ते मन को बड़े धीर से अपने पास बिठा कर देखूँ
हो दिल-दीमाग पर इख्तियार तो मन को आज मना कर देखूँ
सुन्दर कविता ...अच्छी लगी..
जब मन से खुद को अलग करता हूं तो दिल कहता है
जवाब देंहटाएंसब सा दिखना छोड़कर खुद सा दिखना सीख
संभव है सब हो गलत, बस तू ही हो ठीक
और जब दिल को समझाता हूं तो मन नहीं मानता और कहता है --
बस मौला ज्यादा नहीं, कर इतनी औकात,
सर उँचा कर कह सकूं, मैं मानुष की जात
पर जो विवेक कहता है वह यह कि
टूटे ना दिल किसी का यह जतन कर!!
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
फ़ुरसत में …बूट पॉलिश!, करते देखिए, “मनोज” पर, मनोज कुमार को!
bahut khoob........happy navratri....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना ....अब आप पेस बढ़ा रही हैं .... लोग आतंकित हो सकते हैं :)
जवाब देंहटाएंअब बताओ कमेन्ट मन से दूँ कि दिमाग से? मगर इस रचना को पढ कर मन और दिमाग दोनो कहते हैं कि वाह बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंगिरिजेश राव जी ने कहा ...
जवाब देंहटाएं@ नफरतों की आंधियों में अडिग रहा मस्तूल देखूं
मुहब्बत में हुआ बर्बाद, अजब जहाँ का दस्तूर देखूं
उत्तम
लेकिन कई बार जिसे दुनिया बरबाद समझती है, मुहब्बत वाले उसे आबाद कहते हैं। :)
चल मेरे मन कुछ दिन तुझे तुझसे अलग होकर भी देखू
जवाब देंहटाएंटूटे ना दिल किसी का ये जतन कर के भी देखूं
गर हुए मन से अलग तो क्या देखूं ?
न टूटा दिल दिखे न आईना देखूं ..
बस्ती फूँक दी किसी ने घर जलते रहे चिताओं से
गली के आखिरी छोर पर अपना मकान देखूं
फूंकी बस्ती में अपना भी मकाँ जलता देखूं
जलती चिताओं के साथ अपनी भी चिता देखूं
किसी मासूम के हाथ से छीन कर ले गया निवाला श्वान
छप्पन भोगों से सजी थाली किसी मंदिर में देखूं
मंदिर की थाली से ले गया एक निवाला श्वान
मासूम के साथ बैठ दोनों को खाता देखूं ..
नफरतों की आंधियों में अडिग रहा मस्तूल देखूं
मुहब्बत में हुआ बर्बाद, अजब जहाँ का दस्तूर देखूं
मुहब्बत की आंधियों में कहाँ बर्बाद हुए लोंग
नफरतों का आशियाना बनाते लोंग देखूं ...
लिखी है गज़ल तुमने और सोच रही मैं
कि बता मेरे मन क्या देखूं या क्या न देखूं .............
खूबसूरत गज़ल है ..कुछ कहने को मजबूर करती हुई ...मेरी बातों को अन्यथा न लीजियेगा ...आभार
bahut khub,,...
जवाब देंहटाएंitni khubsurat panktiyaan...
maza aa gaya padhkar..
yun hi likhti rahein...
सच है, कोई तो बताये, क्या देखूँ, क्या न देखूँ।
जवाब देंहटाएंबेचारा मन ! कहे तो क्या कहे ....
जवाब देंहटाएंचल मेरे मन कुछ दिन तुझे तुझसे अलग होकर भी देखू
टूटे ना दिल किसी का ये जतन कर के भी देखूं
बहुत ही गहरी और संवेदनशील रचना सोचने को मजबूर करती है………अत्यंत सुन्दर्।
जवाब देंहटाएंsundar abhivyakti!
जवाब देंहटाएंwaah!!!
दी...कबिता बहुत अच्छी लगी....
जवाब देंहटाएंमन को अलग कर चीज़ों को देखना बहुत जरूरी है...
जवाब देंहटाएंबड़े सुन्दर शब्दों में मन की विह्वलता बयाँ की है.
सही कहा है की आज की दुनियां में क्या देखूं, क्या नहीं....बहुत दिल को छू लेनेवाली ग़ज़ल....बधाई...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर .. मन तो मन है इसकी थाह कहाँ .. मन पर उठे ये भाव.. बहुत खूब..
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर इस बार रश्मि प्रभा जी की रचनायें....
जवाब देंहटाएं‘चल मेरे मन कुछ दिन तुझे तुझसे अलग होकर भी देखूं‘
जवाब देंहटाएंमन से अलग होकर मन को देखना-यही घटना मनुष्य को कवि बनाता है और इसी परिस्थिति में ही कविता की रचना संभव है।
किसी मासूम के हाथ से छीन कर ले गया निवाला श्वान
जवाब देंहटाएंछप्पन भोगों से सजी थाली किसी मंदिर में देखूं
उत्तम प्रस्तुति!....
बहुत लाजवाब प्रस्तुति...लेकिन मन को कितनी देर के लिय अलग कर के दुनिया को देखा जा सकता है ? मन नहीं तो मानव नहीं...मानव नहीं तो मानवता कहाँ ? और मानवता नहीं तो फिर क्या देखना ?
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना...आनन्द आया प्रवाहपूर्ण.
जवाब देंहटाएंलाजवाब रचना ! खुद से हटकर खुद को देखना बहुत ज़रूरी है !
जवाब देंहटाएंकल बाहर था इसलिए इस पोस्ट को नही देख सका!
जवाब देंहटाएं--
आपने बहुत ही उम्दा रचना और पोस्ट लिखी है!
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नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ!
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जय माता जी की!
बहुत सुंदर वाणी जी ......
जवाब देंहटाएंहर संवेदनशील व्यक्ति हर ज़रूर महसूस करता है की
क्या देखूं क्या ना देखूं ... सुंदर विचार
संवेदनशील दिल की अभिव्यक्ति .बहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंयहां पहुंचनें में देर हो गयी ! कविता बड़ी सुन्दर और सार्थक भावनाओं के आधार पर खड़ी है पर ये आपकी बेस्ट नहीं लगती मुझे !
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