
माँ लौट आई है गाँव से
खंडहर होते उस मकान के इकलौते कमरे से
अपना कुछ पुराना समान लेकर
आया था जो विवाह में दायजा बन कर ...
पीतल की छोटी छोटी देगचियाँ
देवड़े , चरियाँ , परातें
छोटी , फिर बड़ी , फिर उससे बड़ी ,
करीने से सजा कर रखी जाती होंगी कभी
एक के ऊपर एक पंक्तिओं में ....
ताक कितनी सुन्दर सज जाती होगी ना ...
करीने से सजा तो सब अच्छा ही लगता है
उपयोग ना हो ,दिखता तो अच्छा ही है ...
माँ बड़े प्यार से पोंछती है बारी- बारी से सबको
कितनी मुस्करती हैं उसकी आँखें
जमाकर रखती जाती है उन बेजान बर्तनों को भी
जो उसके गहनों की तरह ही उसके होकर भी उसके नहीं थे ...
याद आते हैं मुझे भी
पीतल के वे छोटे छोटे बर्तन
जिनमे मां चाय बनाती थे ,
दाल उबालती थी,
अंगीठी की कम -तेज आंच में
किनारों से खदबदकार निकलने से पहले ही
ढक्कन हटा देती थी ...
दाल का उबाल हवा बनकर निकल जाता था
और फिर से शांत तली में बैठ जाती थी
माँ कैंसे जान जाती है ...
किसने सिखाया है माँ को
अंगीठी की आंच को संतुलित करना...
उबाल के झाग बनते ही
पानी के छींटे उसे शांत कर देते हैं ..
माँ बनकर मैं भी जान गयी हूँ ...
सिखाया तो मुझे भी किसी ने नहीं ...
सीखते जाते हैं हम जिंदगी से ही अपने आप
याद आते हैं मुझे
पीतल के वे छोटे-बड़े टोपिये
माँ दूध उबाल देती थी जिनमे
दूध कभी फटता नहीं था ...
माँ उसमे कलाई करवाती थी
बस माँ ही जानती है ...
कलई चढ़ाना ...
बर्तनों पर भी
रिश्तों पर भी ....
देवड़े , चरी .... पीतल , स्टील या कांसे के घड़े
टोपिये .... भगौनी
मैं और क्या कर सकती हूँ माँ ....के क्रम में
चित्र गूगल से साभार ...