गुरुवार, 4 जुलाई 2013

घोंघा- सी होती जाती हैं स्त्रियाँ ....



कठोर आवरण की ओट में 
नन्हे नाजुक कदम बढ़ाते देख 
घोघा बसंत कह  
हंसने वालों का साथ देते 
कई बार आत्मग्लानि में 
सिहरा मन 
जाने कितनी धूप 
कितनी बारिश 
कितनी सर्दी 
झेलकर पाई होगी यह कठोरता 
जैसे कि कर्कशा स्त्रियाँ! 

जरा सी आहट पर 
सिकोड़ कर कदम  अपने  
घुस जाते हैं खोल में 
खोल कर एक सिरा 
हलके से परे झांकते 
जाने कितने भय रहे होंगे 
जैसे कि भयभीत स्त्रियाँ !

होती हैं एक दूसरे  से विपरीत 
भयभीत और कर्कशा स्त्रियाँ !
मगर फिर भी कितनी एक -सी 
घोंघा -सी ही होती जाती हैं स्त्रियाँ  !!




नोट -गद्य कह पढ़ ले या कहें कविता , आपकी मर्जी !!

सोमवार, 6 मई 2013

जो होता है वह नजर आ ही जाता है...



जो होता है वह नजर आ ही जाता है
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सूरज अपने प्रकाश का विज्ञापन नहीं देता
चन्द्रमा के पास भी चांदनी का प्रमाणपत्र नहीं होता!

बादल कुछ पल, कुछ घंटे , कुछ दिन  ही
ढक सकते हैं ,रोक सकते हैं
प्रकाश को , चांदनी को ...

बादल के छंटते ही नजर आ जाते हैं
अपनी पूर्ण आभा के साथ पूर्ववत!

टिमटिमाते तारे भी कम नहीं जगमगाते
गहन अँधेरे में जुगनू की चमक भी कहाँ छिपती है!

जो होता है वह नजर आ ही जाता है देर -सवेर
बदनियती की परते  उतरते ही ! 
(या मुखौटों के खोल उतरते ही !!)

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

मुझमे मेरा विश्वास...


जीवन  की उबड़ खाबड़ पगडण्डी पर चलते हुए कई बार राह बहुत कठिन हो जाती है ...
पथरीली राहें पैरो को लहू लुहान कर जाती है ... राह के कांटे भी गहरी टीस दे जाते हैं ....
मगर आपका स्वयं  पर विश्वास हो तो राह के कंटीले पंथ ख़ुद आपका रास्ता छोड़ कर खड़े हो जाते हैं....



रूखे सूखे थे होंठ कभी
बिखरे भी हुए रहते थे बाल
विदीर्ण हुआ था ह्रदय कभी 
ना सध पाती थी चाल

ख़त्म होने को लगती थी 
जीवन की हर आस
मगर नही टूटा जो वह  था
मुझमे मेरा विश्वास

अपनों ने फेरी थी नजरें 
गैरों के भी थे व्यंग्य बाण
हर अंगुली उठ जाती थी 
कम करने को आन औ मान

घिरते थे संशय के बादल 
शाम रहती  थी उदास
मगर नही टूटा जो वह  था 
मुझमे मेरा विश्वास

मुश्किल लगती थी हर डगर
 पलकों पर अटके थे मोती
कम होती मुखड़े पर रौनक 
उम्मीदों की बुझती ज्योति

ख़त्म होने को लगता था 
जीवन का यह मधुमास
मगर नही टूटा जो वह था 
मुझमे मेरा विश्वास...


चित्र गूगल से साभार