शनिवार, 26 मई 2012

एक नदी थी...






वह एक नदी थी
जब तुमसे मिली थी
बहती थी अपनी रौ में
कल-कल करती....कूदती फांदती ...
प्यार की फुहारों से भिगोती
इठलाती थी इतराती थी
चंचल शोख बिजली सी बल खाती थी
पर...
तब तुम्हे कहाँ भाती थी

राह में इसके कंकड़ पत्थर भी तो थे
कुछ सूखे हुए फूल कुछ गली हुई शाखाएं भी तो थी
कुछ अस्थि कलश जो डाले थे किसी ने किसी अपने को मोक्ष प्रदान करने के लिए
कुछ टोने टोटके वाले धागे जो बांधे थे किसीने अपने पाप किसी और के सर मढ़ने के लिए
गठरी बंधी थी कामनाओं की.... वासनाओं की
जो बाँधी थी कुछ अपनों ने... कुछ बेगानों ने
और भी ना जाने क्या क्या था उसके अंतस में
था जो भी .... उसके अंतस में
ऊपर तो थी बस कल कल करती मधुर ध्वनि
तुम्हारी नजरें तो टिकी थी
बस अंतस की गांठो को तलाशने में
उस तलाश में तुमने नहीं देखा
उसकी पवन चंचलता को
क्या क्या नाम दिए तुमने उसकी चपलता को
तुम ढूंढते ही रहे
कि... कोई सिरा मिल जाए कि
बाँध पाओ उसे ...रोक पाओ उसे
और कुछ हद तक बांधा भी तुमने उसे
पर..क्या तुम्हे पता नही था ?
धाराएँ जब आती हैं उफान पर सारे तटबंधों को तोड़ जाती है
और अगर दीवारों में बंध जाती हैं तो नदी कहाँ कहलाती है
नदी का पानी जब ठहर जाता है कीचड़ हो जाता है
क्या तुम्हे पता नहीं था ?
पर जरा ठहरो ....
अपनी दीवारों पर इतना मत मुस्कुराओ
उम्मीद की एक किरण अभी भी बाकी है
कीचड़ में भी फूल खिलाने का हुनर नदी जानती है !!
कभी हार कहाँ मानती है !
नदी हमेशा मुस्कुराती है !

डेली न्यूज़ में प्रकाशित


चित्र गूगल से साभार !

मंगलवार, 22 मई 2012

हँसना तो बनता है !!


सुपात्र होने पर भी 
जिनकी जीभ नहीं लपलापायी
मुफ्त का सामान देखकर 
किया हो जिन्होंने न्याय पर विश्वास 
मुफ्त बांटे जाने वाली लाईन में 
बिना धक्का मुक्की किये 
अगली पंक्ति  को लंगड़ी मार कर गिराए बिना 
अपनी बारी का करते इंतज़ार 
रह गये जो सबसे पीछे ...
उनका नंबर आने तक 
खाली हो गयी दाता की झोली!
विधि की कठोरता 
असमानता और अन्याय पर 
करें यदि  सवाल 
सोचना तो बनता है !   

मगर 
पिछली शीत ऋतु में 
जिन गिलहरियों ने  
मुफ्त की मूंगफलियाँ ...
छक कर खाई हों 
मिट्टी में मुंह दबा कर 
मौसम के कहर पर आंसू बहाए आज 
हँसना तो बनता है !!

पिछली शीत ऋतु में ही  
जिसने खाई हो
मुफ्त की रेवड़ियाँ रच कर... 
उनका ही 
ग्रीष्मकालीन अवकाश में कर देना 
तिल की गुणवत्ता  
चीनी -गुड के भाव पर  बवाल 
हँसना तो बनता है!!



शनिवार, 12 मई 2012

इति हैप्पी मदर्स डे !



कही किसी छोटे से घर में 
नन्हे हाथों से बनाये  कार्ड 
बगिया से तोड़ लिया गया एक फूल 
गुल्लक के पैसों से खरीदी चॉकलेट 
या माँ के बालों के लिए क्लचर
गले में बाहें डाल कर 
गालों से गाल सटाकर 
गीली छाती से गर्वोंन्मत 
नन्हे मुन्नों को दुलारते 
निहाल हुई जायेगी कोई माँ !

ऐसे ही 
किसी और ख़ास दिन 
घर के किसी कोने से 
बाहर खींच लाई जाएगी कोई माँ! 
गलियारे से खटिया हटकर 
बैडरूम में सज जाएगी.  
नई सूती साडी में 
चश्मे के पीछे भीगी कोर से 
कुछ पल की ख़ुशी में ही 
पैरों में सिर झुकाते लोगों को 
देगी आशीष 
फूलों के गुलदस्ते होंगे 
हो सकता है मिठाई भी हो.  
मदर्स डे  मनाने लोंग और भी तो आएंगे !
किसी नालायक बेटे की बदजात बहू 
अपने बच्चों की जूठी प्लेट से 
माँ को भोग लगाएगी .
इस एक दिन की ख़ुशी में 
सारी नाइन्सफियों को माफ़ कर 
गंगा  नहाएगी कोई माँ !

ऐसे ही
किसी और दिन 
कमरे की  किसी दिवार पर 
टंगी हुई तस्वीर
किसी ख़ास दिन 
झाड़ पोंछ ली जाएगी 
तस्वीर में कितना  मुस्कुराएगी कोई माँ !
अगरबत्ती सुलगा कर 
दोनों हाथों को जोड़ 
सिर नवा लेंगे  लोंग .
कितनी महान थी मां
सुना कर की जाने वाली बातों के बीच 
होठों में दबे कुछ शब्द 
हमारे लिए क्या छोड़ गयी 
सब तो छोटे को दे गयी .
अच्छी -बुरी स्मृतियों के संग 
जीमे जायेंगे  ढेर पकवान.
हो जायेगा  पुण्य स्मरण 
याद कर ली जाएगी कोई माँ!  

इति हैप्पी मदर्स डे !